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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
लश्य
१. शास्त्रविहित उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला मुनि। २. अकारण अन्य लिंग को धारण करने वाला मनि। यथोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्गपुलाकः।
(स्था ५.१८५ वृ प३२०) लिङ्गप्रतिषेवणाकुशील प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो लिङ्ग के आधार पर आजीविका करता है।
(स्था ५.१८७ वृ प ३२०) (द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील)
लिक्षा
क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालाग्र की एक लिक्षा होती है।
(अनु ३९९) (द्र बालान, यूका)
एता
लिप्त एषणा दोष का एक प्रकार । सचित्त वस्तु से लिप्त पात्र आदि से दी जाने वाली भिक्षा लेना। लिप्तं सचित्तफलादिरसेन, यद्वा लिप्तं दुग्धदधितेमनादि।
(प्रसा ५६८७)
जिस लेश्या के पुद्गलों को लेकर जीव मरता है, उसका उसी लेश्यास्थान में उत्पन्न होना। लेस्साणुवायगती-जल्लेस्साइं दव्वाई परियाइत्ता कालं करेति, तल्लेस्सेसु उववज्जति, तं जहा-कण्हलेस्सेसु वा जाव सुक्क-लेस्सेसु वा। लेश्यानुपातगतिरिति लेश्याया अनुपात:-अनुसरणं तेन गतितेश्यानुपातगतिः"यानिलेश्याद्रव्याणि पर्यादाय जीवः कालं करोति तल्लेश्येषूपजायते, न शेषलेश्येषु ततो जीवो लेश्याद्रव्याण्यनुसरति।
(प्रज्ञा १६.५० वृ प ३२९) लोक जो धर्म आदि पांच अस्तिकाय से युक्त है। अथवा आकाश का वह भाग, जहां धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छ: द्रव्य विद्यमान हैं। (देखें चित्र १३४२) "पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ"।
(भग १३.५५) धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो, ........॥ (उ २८.७) षड्द्रव्यात्मको लोकः।
(जैसिदी १.८) लोक अनुप्रेक्षा ग्यारहवीं अनुप्रेक्षा । तत्त्वज्ञान की विशुद्धि के लिए विविध परिणति वाले लोक का अनुचिन्तन करना। पञ्चास्तिकायात्मकं विविधपरिणाममुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलययक्तं लोकं चित्रस्वभावमनचिन्तयेत। एवं ह्यस्य चिन्तयतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवतीति लोकानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७) लोकधर्म लोकव्यवहार, ग्राम-नगर आदि में विद्यमान आचार और व्यवस्था, जैसे-औचित्य के द्वारा अर्थोपार्जन करना, पारस्परिक सहयोग करना, लोकहितों की सुरक्षा के लिए उपाय करना। ग्राम-नगर-राष्ट्र-कुल-जाति-युगादीनामाचारो व्यवस्था वा लोकधर्मः। ग्रामादिषु जनानामौचित्येन वित्तार्जनव्ययविवाहभोज्यादिप्रथानां पारस्परिकसहयोगादेर्वा आचरणमाचारः। तेषां च हितसंरक्षणार्थं प्रयुज्यमाना उपायाः व्यवस्था।" लोकधर्मः-लौकिको व्यवहार इत्युच्यते।
(जैसिदी ८.१४ वृ)
लेश्या चैतन्य की रश्मि, तैजस शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना। प्रशस्त-अप्रशस्त भावधारा और उसमें हेतुभूत कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल। लेस्स त्ति-रस्सीओ।
(नन्दीचू पृ ४) लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिः। (सूत्र १.४.५२ वृप १२०) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते॥
(उशावृप६५६) (द्र द्रव्यलेश्या, भावलेश्या) लेश्यागति एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होना। सम्प्राप्य तद्रूपादितया परिणमन्ति सा लेश्यागतिः।
(प्रज्ञा १६.४९ वृ प ३२९)
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