Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 270
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २५३ लोकधर्मो देशकालादिभिः परिवर्तनीयस्वरूपः, वर्गविशेषैविभेदमापन्नश्च। धर्मस्तु आत्मोदयकारकः, अपरिवर्तनीयस्वरूप: सर्वसाधारणश्च इत्यनयोर्भेदः। (जैसिदी ८.१३ वृ) लोकपाल कल्पोपपन्न देव का एक प्रकार । इन्द्र द्वारा नियुक्त आरक्षक के दायित्व का निर्वाह करने वाला देव। लोकपाला आरक्षिकार्थचरस्थानीयाः। (तभा ४.४) लोकबिन्दुसार चौदहवां पूर्व, जिसमें सर्वाक्षरसन्निपात आदि का प्रज्ञापन किया गया है और जो इस लोक में अथवा श्रुतलोक में । अक्षर पर बिन्दु के समान सर्वोत्तम है। चोद्दसमं लोगबिंदुसारं, तं च इमम्मि लोए सुतलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सव्वुत्तमं सव्वक्खरसण्णिवातपढितत्तणतो लोगबिंदुसारं, तस्स पदपरिमाणं अडतेरस पदकोडीओ। (नन्दीचू १०४ पृ७६) लोकविपश्यी शरीर की प्रेक्षा करने वाला। लोकः-शरीरम्। तस्य विपश्यी लोकविपश्यी। (आभा २.१२५) लोकाकाश के प्रदेशों की पंक्ति। पूर्व-पश्चिम आयत, दक्षिणउत्तर आयत और ऊर्ध्व-अध: आयत-द्रव्य से असंख्यात होती हैं। लोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? अंखेन्जाओ? अणंताओ? गोयमा! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। पाईणपडीणायताओ णं भंते! लोगागाससेढीओ दवट्टयाए किं संखेन्जाओ? एवं चेव। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एवं उड्डमहायताओ वि। (भग २५.७५, ७६) लोकान्त १. लोक का अन्तिम छोर, जिसके आगे केवल अलोकाकाश लोकस्यान्तो लोकान्त आलोकान्तादिति। (तवा १०.६.२) २. व्यवसाय का एक प्रकार। लौकिकशास्त्र-अर्थशास्त्र आदि के आधार पर किया जाने वाला निर्णय। लोको-लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः तस्मादन्तो-निर्णयस्तस्य वा परमरहस्यं पर्यन्तो वेति लोकान्तः। एवमितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः, समया जैनादिसिद्धान्ताः। (स्था ३.५११ वृप १६४) (द्र व्यवसाय) लोकान्तिक (स्था ३.८६ वृ प १११) (द्र लौकान्तिक) लोकसंज्ञा १. लौकिक मान्यता। लोकसंज्ञा स्वच्छंदघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता। (आवृ प २६) २. विशेष बोध। वह संवेदन, जो प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा अपने-अपने विषय के ग्रहण से होता है। सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा। (स्था १०.१०५ वृप ४७९) (द्र ओघसंज्ञा) लोकस्थिति विश्वव्यवस्था का नियम। लोकस्य-पञ्चास्तिकायात्मकस्य स्थितिः-स्वभावः लोक-स्थितिः। (स्था १०.१ ७ प ४४६) लोकोत्तर उपकार आत्मविकास करने वाले उपकार, जैसे-धर्मोपदेश करना, निरवद्य दान देना। लोकोत्तरः-पारमार्थिक उपकारः, धर्मोपदेशादिरूपो निरवद्य-दानादिरूपो वा। (जैसिदी ९.२० वृ) लोकोत्तर धर्म आत्मोदयकारक धर्म, जो श्रुत और चारित्र रूप है। दुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य। (दनि ४०) (द्र लोकधर्म) लोकोपचार विनय १. लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना, गुरु के आने पर लोकाकाश श्रेणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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