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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सल्लविरते समिए सहिए सया जए, णो कुज्झे णो माणी 'माहणे' त्ति वच्चे। (सूत्र १.१६.३ ) २. अहिंसक । वह मुनि, जो जीवों की हिंसा न करता है, कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ......अणण्णं चर माहणे! |
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से ण छणे, ण छणावए, छणतं णाणुजाण ।
(आ ३.४५,४६) ३. जो स्वयं अहिंसक है और अहिंसा का उपदेष्टा है। मा हणह सव्वसत्तेहिं भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । (सूत्र १. १६. ३ चू पृ २४६ ) माहणेणं ति मा जन्तून् व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनो भगवान् वर्द्धमानस्वामी ।
(सूत्र १.९.१ वृ प १७७)
माहेन्द्र
चौथा स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की चौथी आवासभूमि । यह ईशान देवलोक के ऊपर स्थित है ।
(देखें चित्र पृ ३४६)
कहिं णं भंते! माहिंदगदेवा परिव गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उपिं ..... । (प्रज्ञा २.५३)
मित
पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग । सीखे हुए ग्रन्थ के श्लोक, पद, वर्ण, मात्रा आदि की संख्या का निर्धारण । जं वण्णतो तनुगुरुयबिंदुमत्ताहि पयसिलोगादीहि य संखितं तं मितं भण्णति । (अनु १३ चू पृ ७)
मित्रदोषप्रत्यया
क्रिया का एक प्रकार । स्वल्प अपराध होने पर भी स्वजनवर्ग के प्रति कठोर दंड का प्रयोग । मित्तदोसवत्तिए केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहिं वा तेसिं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं णिव्वत्तेति । (सूत्र २.२.१२)
मित्रानुराग
मारणान्तिक संलेखना का एक अतिचार। बचपन के मित्र के साथ की हुई क्रीडा आदि का स्मरण करना । पूर्वकृतसहपांशुक्रीडनाद्यनुस्मरणान्मित्रानुरागः ।
(तवा ७.३७)
मिथ: कथा
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१. कामकथा ।
२. परस्पर होने वाली आहार आदि की कथा । मिथःकथा – कामकथा, परस्परं जायमाना भक्तादीनां कथा (आभा ९.१.१० )
वा।
मिथुनक
(द्र यौगलिक)
महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण । (भग १.८७ वृ)
मिथ्याकार सामाचारी
सामाचारी का एक प्रकार । मिथ्या आचरण होने पर 'मैंने मिथ्या आचरण किया है' - इस प्रकार अपनी निंदा करना । मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः, सा चात्मनो निन्दा - जुगुप्सा तस्यां, वितथाचरणे हि धिगिदं मिथ्या मया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः । (उ २६.३ शावृ प ५३५ )
मिथ्यात्व
दर्शनमोह के उदय से अयथार्थ में यथार्थ की प्रतीति, मिथ्यादर्शन |
दर्शन मोहोदयाद् अतत्त्वे तत्त्वप्रतीतिः मिथ्यात्वम् । (जैसिदी ४.१८ वृ)
(द्र मिथ्यात्व आश्रव) मिथ्यात्व आश्रव
आत्मा का मिथ्यात्वरूप (विपरीत तत्त्व श्रद्धारूप ) परिणाम, जो कर्म - पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) ॐध सरधै ति नै कह्योजी, आसव प्रथम मिथ्यात | या तिकै असुभ कर्म छैजी, सात आउ साख्यात ॥ (झीच २२.२४ )
मिथ्यात्व क्रिया
जीवक्रिया का एक प्रकार ।
१. जीव में तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा की प्रवृत्ति । मिथ्यात्वम् - अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एव । (स्था २.३ वृ प ३७) २. मिथ्यात्व की ओर ले जाने वाली क्रिया । वह क्रिया, जिसके द्वारा मिथ्यात्व का संवर्धन होता है । मिथ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिर्मिथ्यात्वक्रिया ।
( तवा ६.५ )
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