Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 262
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २४५ यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते। "अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू। (अनु ३९९) (स्था ९.६९ ७ प ४४५) (द्र बालाग्र) रतिअरति पाप रम्यक वर्ष पाप कर्म का सोलहवां प्रकार। संयम में अरुचि और असंयम जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो नील पर्वत से उत्तर में, में रुचि से होने वाला अशुभ कर्मबंध। (आवृ प७२) रुक्मी पर्वत से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में रतिअरति पापस्थान और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते? वह कर्म, जिसके उदय से जीव की असंयम में रुचि तथा गोयमा! णीलवंतस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, पुरस्थिमसंयम में अरुचि होती है। (झीच २२.२२) लवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स (द्र मान पापस्थान) पुरस्थिमेणं। (जं. ४.२६५) रत्नत्रय रस तीन आध्यात्मिक रत्न-सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक पदगल का एक लक्षण, जो रसनेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। चारित्र, जो मोक्ष की प्राप्ति में हेतु बनते हैं। रसस्स जिब्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति। ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं ॥ (योशा १.१५) (उ ३२.६२) सम्मईसणणाणं चरणं, मुक्खस्स कारणं जाणे।... (द्र गन्ध) रयणत्तयं"। (बृद्रसं ३९,४०) रस गौरव रत्नप्रभा १. स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों की प्राप्ति का अभिमान । नरक की प्रथम पृथ्वी (धर्मा) का गोत्र, जहां अनेक प्रकार ऋद्धिप्राप्त्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशभभावो"रसो के रत्न हैं और जो रत्नों की प्रभा से प्रभासित है। रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः। (स्था ३.५०५ ७ प १६३) (देखें चित्र पृ ३४६) २. इष्ट रस का त्याग न करना तथा अनिष्ट रस के प्रति एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त गोत्ता पण्णत्ता, तं जहा- अनादर का भाव रखना। रयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम्। तमा, तमतमा। (स्था ७.२४) (भआ ६१२ विवृ) इंदनीलादिबहुविहरयणसंभवओ रयणप्पभादीसु क्वचित् रत्नप्रभासनसंभवाद्वा रयणप्रभा। (अनु २५४.३ चू पृ ३५) रसज छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले कृमि के आकार रत्नाधिक वाले सूक्ष्म जीव। (प्रसा १०२ वृ) रसाज्जाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्या(द्र रानिक) कृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति। (द ४.९ हावृ प १४१) रथरेणु रसनाम क्षेत्र-मापन का एक प्रकार, जो आठ त्रसरेणु के बराबर होता नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के रस की व्यवस्था होती है। उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा रस्यते आस्वाद्यते इति रसः, स पञ्चधा-तिक्तकटुकषायापरमाणू तसरेण, रहरेणू अग्गयं च वालस्स।। म्लमधुरभेदात्, तन्निबन्धनं रसनामापि पञ्चधायदुदयात् लिक्खा जूया य जवो, अट्ठगुण विवड्डिया कमसो॥ जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां तत्तिक्त(अनु ३९५.१) रसनाम, एवं शेषाण्यपि रसनामानि भावनीयानि। (प्रज्ञा २३.४९ वृ प ४७३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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