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१. मन, वचन और काया की अवितथ - यथार्थ प्रवृत्ति, परमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति ।
योगाः - मनोवाक्कायास्तेषां सत्यम् - अवितथत्वं योगसत्यम् । (उ२९.५३ शावृ प ५९१ ) २. सत्य का एक प्रकार। किसी वस्तु के संयोग के आधार पर व्यक्ति को संबोधित करना, जैसे-दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना । 'जोगे' त्ति योगतः - संबन्धतः सत्यं योगसत्यं, यथा दण्डयोगाद् दण्डः, छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यते ।
(स्था १०.८९ वृ प ४६५)
योगहीन
ज्ञान का एक अतिचार संबंधरहित उच्चारण करना । सम्यगकृतयोगोपचारम् । (आव ४.८ हावृ पृ १६१ )
योग्य
बंध से पूर्व होने वाली कर्म की एक अवस्था । वह कर्मपुद्गल, जो बंधपरिणाम के अभिमुख होता है।
योग्या बन्धपरिणामाभिमुखाः ।
(विभा २९६२ वृ)
योजन
चार कोस के बराबर का एक माप अथवा ७.८८ माइल ।
(स्था ८.६२ वृ प ४१२ ) ( अनु ४०० )
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चत्तारि गाउयाइं जोयणं ।
योनि
उत्पत्तिस्थान, जहां एक शरीर का नाश होने पर नए शरीर की रचना के लिए जिन पुद्गलों का ग्रहण और कार्मण शरीर के साथ मिश्रण होता है।
अयमात्मा पूर्वभवशरीरनाशे तदनुशरीरान्तरप्राप्तिस्थाने यान् पुद्गलान् शरीरार्थमादत्ते तान् कार्मणेन सह मिश्रयति तप्तायस्पिण्डाम्भोग्रहणवच्छरीरनिर्वृत्यर्थं बाह्यपुद्गलान् यस्मिन् स्थाने तत् स्थानं योनिः । (तभा २.३३ वृ)
योनिसंग्रह
प्राणियों की उत्पत्ति के स्थानों का संग्रह, जैसे- अण्डज, पोतज, जरायुज आदि । (स्था ८.२)
यौगलिक
निरुपक्रम आयुष्य वाले मनुष्ययुगल और तिर्यंचयुगल, जो
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
असंख्यवर्षजीवी होते हैं, छह माह की आयु शेष रहने पर एक युगलक का प्रसव करते हैं तथा मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उपपन्न होते हैं।
असंख्येयवर्षायुषो निरुपक्रमायुषः ॥" असंख्यवर्षायुषः - यौगलिका नरास्तिर्यञ्चश्च । (जैसिदी ७.३१ वृ)
...ते णं मणुया छम्मासावसेसाउया जुयलगं पसवंति कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्र्ज्जति। (जीवा ३.६३०) महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण । (भग १.८७ वृ)
(द्र युगलक )
रचित
पिण्डैषणा का एक दोष । साधु के निमित्त कांस्यपात्र आदि के मध्य में आहार रखकर उसके परिपार्श्व में नाना प्रकार के व्यञ्जन स्थापित करना ।
रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते ।
(व्यभा १५२० वृ)
जोहरण
साधु का एक आवश्यक उपकरण, जो ऊन या दूसरे कोमल से बना हुआ होता है तथा जिसका उपयोग प्रमार्जन के लिए किया जाता है।
आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयण तुयट्टसंकोए । पुव्वं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥
(ओनि ७११)
रज्जु
क्षेत्र का एक प्रमाण, जग श्रेणि का सातवां भाग, जिसका मान प्रमाणांगुल - प्रमित असंख्य योजन होता है । '''''जगसेढीए सत्तमभागो रज्जू पभासते । ( त्रिप्र १.१३२) का रज्जू णाम ? तिरियलोगस्स मज्झिमवित्थारो ।
(धव पु ३ पृ ३४)
रति
नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। जिसके उदय से सचित्त, अचित्त आदि बाहरी द्रव्यों में प्रीति पैदा होती है।
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