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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
मिच्छरुई ।
(द्र मिथ्यादृष्टि)
(स्था ३.३९३)
मिथ्या श्रुत
श्रुतज्ञान का एक प्रकार, जो मिथ्यादृष्टि द्वारा स्वच्छन्द मति से रचित है।
मिच्छसुयं - जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिट्ठिहिं सच्छंदबुद्धिमविगप्पियं । (नन्दी ६७ )
मिथ्योपदेश
(तसू ७.२१)
(द्र मृषोपदेश)
मिश्रजात
उद्गम दोष का एक प्रकार। गृहस्थ और साधु दोनों के लिए बनाया गया भोजन ।
यदात्मार्थं साध्वर्थं चादित एव मिश्रं पच्यते तन्मिश्रम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३३ )
मिश्र योनि
१. वह उत्पत्ति स्थान, जिसमें सचित्त और अचित्त दोनों का मिश्रण होता है।
सचित्ता जीवप्रदेशाधिष्ठिता । अचित्ता तद्विपरीता । सचित्ताचित्ता प्रस्तुतद्वयस्वभावमिश्रा | (तभा २.३३ वृ)
२. वह उत्पत्ति स्थान, जो शीत और उष्ण – उभयरूप होता
है ।
(द्र शीतोष्ण योनि)
३. वह उत्पत्ति स्थान, जो संवृत और विवृत - उभयरूप होता है।
(द्र संवृत - विवृत योनि)
मिश्राहार
जीवसहित और जीवरहित पुद्गलों का आहार करने वाला। मिश्रमाहारयन्तीति मिश्राहाराः । (प्रज्ञा २८.१ वृ प ५०० )
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मुक्त
१. निर्ग्रन्थ- वह जीव, जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से रहित होता है।
बाहिरऽब्धंतरेहिं गंथेहिं विप्पमुक्को मुत्तो ।
२३३
(द १.३ अचू पृ २३४ ) २. वह जीव, जो ज्ञानावरणीय आदि कर्मबंधन से मुक्त है और जिसके भवोपग्राही कर्म ( वेदनीय - आयुष्य - नाम - गोत्र ) प्रतिक्षण क्षीण हो रहे हैं, भवस्थकेवली । ज्ञानावरणीयादिकर्मबंधनाद्वियुक्तो मुक्तः ।
(सूत्र १.६.८ वृ प १४५) 'मुच्चइ त्ति' स एव संजातकेवलबोधो भवोपग्राहिकर्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत इत्युच्यते । (भग १.४४ वृ) ३. वह जीव, जो समस्त कर्मों से मुक्त होता है, सिद्ध । मुक्तास्तु ज्ञानावरणादिकर्मभिः समस्तैर्मुक्ता एकसमयसिद्धादयः । (तभा १.५ वृ पृ ४९ )
मुक्त शरीर
शरीर की वह पुद्गल-वर्गणा, जो जीव के द्वारा प्रतिक्षण त्यक्त होती है । (प्रज्ञा १२.७ )
मुक्ताशुक्तिमुद्रा
उठे
मौवी की सीप के समान कुछ गर्भित (मध्य में कुछ हुए) दोनों हाथों को ललाट से लगाना । किञ्चित् गर्भितौ हस्तौ समो विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा । (निर्वाक पृ३३)
मुक्ति धर्म
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(स्था १०.१६)
(द्र शौच धर्म)
मुखपतिका
मुखवस्त्रिका, जिसका उपयोग सम्पातिम जीवों की रक्षा हेतु मुंह पर बांधने के लिए, पृथ्वीकाय के सचित्त रजकणों के प्रमार्जन के लिए, शरीर पर लगने वाले रजकणों के प्रमार्जन के लिए तथा आवासस्थल की सफाई करते समय रजकणों से बचाव के लिए मुख और नासिका को बांधने के लिए किया जाता संपातिमरयरेणू पमज्जणट्ठा वयंति मुहपत्तिं । नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमज्जते ॥
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(ओनि ७१२)
मुखवस्त्रिका
(ओनि ७१२ वृ)
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