Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 256
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २३९ गृहस्थ द्वारा अपने लिए पकाया हुआ भोजन आदि, जो मुनि के कालातीत है, ग्राह्य है। अहागडेसुरीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा॥ 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु। (द १.४ हावृ प ७२) यथाख्यात चारित्र चारित्र का एक प्रकार। जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्रिक स्थिति। अहसदो जाहत्थे, आडोऽभिविहीए कहियमक्खायं। चरणमकसायमुदितं, तमहक्खायं जहक्खायं॥ (विभा १२७९ ) येनाध्यवसायेन दुर्भेद्यरागद्वेषात्मकग्रन्थिसमीपं गच्छति, स यथाप्रवृत्तिकरणम्। (जैसिदी ५.८ वृ) यथाभद्रक सुलभबोधि वाला, जो सम्यक्त्व से रहित है किन्तु जिनशासन और साधुओं के प्रति बहुमान रखने वाला है। 'यथाभद्रकः' सम्यक्त्वरहितः परं सर्वज्ञशासने साधुषु च बहुमानवान्। (बृभा १९२६ वृ) यथाच्छन्द शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार वह मुनि, जो आगमनिरपेक्ष होकर स्वच्छन्द मति से जीवन-यापन करता है और स्वच्छन्दता का प्रज्ञापन करता है। उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो। एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा। (व्यभा ८५२) सूत्रादूर्ध्वमुत्तीर्णं परिभ्रष्टमित्यर्थः उत्सूत्रं तदाचरन्-स्वयं सेव- मानः उत्सूत्रमेव च यः परेभ्यः प्रज्ञापयन् वर्तते एष यथाच्छन्दः। (प्रसा १०३ वृप २७) यथायु वह आयुष्य, जो बीच में त्रुटित नहीं होता, अकाल मृत्यु नहीं होती। यह आयुष्य देव, नैरयिक, असंख्येय वर्ष आयु वाले तिर्यंच, मनुष्य, उत्तम पुरुष (त्रिषष्टिशलाकापुरुष) तथा चरमशरीरी मनुष्य के होता है। दो अहाउयं पालेंति, तं जहा-देवच्चेव, णेरइयच्चेव। (स्था २.२६६) यथाबद्धमायुर्यथायुः पालयन्ति-अनुभवन्ति नोपक्रम्यते तदिति यावदितिदेवा नेरइयावि, य असंखवासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा य निरुवकमा॥ (स्थावृ प ६३) यथायुर्निर्वृत्तिकाल नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य अथवा देवों ने जितना और जैसा आयुष्य बांधा है, वह है-यथायुर्निवृत्तिकाल। अहाउनिव्वत्तिकाले-जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं । (भग ११.१२६) यथाप्रवृत्त अवधि वह अवधिज्ञान, जो किसी गुण (चारित्र)-प्रतिपत्ति के बिना मेघाच्छन्न आकाश के किसी छिद्र से आने वाली रविरश्मि की भांति क्षयोपशम मात्र से उत्पन्न होता है। गुणमंतरेण जहा गगणब्भच्छादिते अहापवत्तितो छिद्देणं दिणकरणकिरण व्व विणिस्सिता दव्वमुजोवंति तहाऽवधिआवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापवत्तितो विण्णेतो। (नन्दीचूपृ १५) यथाप्रवृत्ति करण सम्यक्त्व-प्राप्ति की प्रक्रिया का एक अंग। अनादिकालीन रागद्वेषात्मक ग्रंथि का भेदन करने की स्थिति के परिपार्श्व में होने वाला अध्यवसाय। यथालन्दचारी सतत अप्रमाद की साधना करने वाला मुनि। (बृभा १४३८ वृ पृ ४३०) (द्र यथालन्दिक) यथालन्दिक यथालन्दचारी मुनि, जो पांच अहोरात्र तक एक वीथि में रहते हैं, वहीं भिक्षाचर्या करते हैं, उत्कृष्ट लंद (पंचरात्र) का अतिक्रमण नहीं करते। लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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