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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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अथवा उपेक्षावृत्ति के कारण होने वाला दोष। प्रशास्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मरणादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः।
(स्था १०.९४ वृ प ४६७)
प्रस्तारा:---प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषाः।
(स्था ६.१०१ वृ प ३५२) पत्थारो उ विरचणा, सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते। पच्छित्तेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा॥
(बृकभा ६१३०)
प्रश्न व्यक्ति के अंगूठे और बाहु को देखकर उसके शुभाशुभ का निर्देश करने वाली मंत्रविद्या। तत्रागुष्ठबाहुप्रश्नादिका मंत्रविद्याः प्रश्नाः।
(सम ९८ वृ प ११५)
प्रस्फोटना प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखन करते समय रज से लिप्त वस्त्र को वेग से झटकना। 'प्रस्फोटना' प्रकर्षेण रेणगण्डितस्येव वस्त्रस्य झाटना।
(उ २६.२६ शावृ प ५४१)
प्रश्नव्याकरण द्वादशांग श्रुत का दसवां अंग, जिसमें प्रश्न, अप्रश्न, प्रश्नाप्रश्न तथा अनेक दिव्य विद्या संबंधी विषयों का आख्यान किया गया है। पण्हावागरणेसु णं अठुत्तरं पसिणसयं, अठुत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सदिव्वा संवाया आघविजंति। से णं अंगट्ठयाए दसमे अगे."संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं ।
(नन्दी ९०)
प्रहर दिन अथवा रात्रि का १/४ भाग। (ओनिवृ प २०६ ) प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा जल में भूमि की तरह चलने की तथा भूमि पर जल की तरह उन्मज्जन-निमज्जन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अप्सु भूमाविव गमनं भूमौ जलं इवोन्मज्जननिमज्जनकरणं प्राकाम्यम्।
(तवा ३.३६ पृ २०३)
प्रश्नव्याकरणदशाधर वह मुनि, जो प्रश्नव्याकरणदशा के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया पण्हावागरणदसाधरा। (औप ४५)
प्रागभाव अभाव (प्रतिषेध) का पहला प्रकार। कारण के निवृत्त होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। इस नियम के अनुसार कारण में कार्य का प्रागभाव है, जैसे-मत्पिण्ड में घट का। यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः। यथा मृत्पिण्डनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्डः।
(प्रनत ३.५९,६०)
प्रश्नाप्रश्न वह विद्या, जिससे प्रश्न पूछने पर अथवा न पूछने पर शुभाशुभ का निर्देश मिल जाता है। तथाङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाप्रश्नाः । (सम ९८ वृ प ११५)
प्रस्तार प्रायश्चित्त की रचना का विकल्प, जिसकी दोष के अनुरूप रचना होती है। प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि । जो अपने अपराध का निह्नवन करता है और जो अपने झूठे आरोप को साधने का प्रयत्न करता है-दोनों के उत्तरोत्तर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
प्रारभारा शतायु जीवन की एक दशा, आठवां दशक । इस अवस्था में चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती है, बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारीवल्लभ नहीं रहता। संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमिं दसं। णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ।
(दहावृ प ९) प्राजापत्यस्थावरकाय प्राजापत्य से संबंधित होने के कारण वनस्पति का अपर नाम
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