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पारिग्रहिकी क्रिया
१. क्रिया का एक प्रकार । परिग्रह, संग्रह में प्रवृत्ति ।
२. परिग्रह की सुरक्षा के लिए होने वाला प्रयत्न । परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी।
(स्था २.१४)
पारिणामिक भाव
भाव का एक प्रकार। अपने स्वरूप का त्याग किए बिना परिणमन से होने वाली जीव और पुद्गल की अवस्था । अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो भण्णति । (अनु २७१ चू पृ ४४)
पारिणामिकी बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । अवस्था के साथ अनुभव से उत्पन्न होने वाली बुद्धि । अनुमान हेतु और दृष्टान्त से साध्य को सिद्ध करने वाली, वयोविपाक से परिपक्व होने वाली, अभ्युदय और निःश्रेयस फल वाली बुद्धि ।
अणुमाण - उ-दिवंत-साहिया, वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेयसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ॥ ( नन्दी ३८.१० )
(तवा ६.५.११)
पारितापनिकी क्रिया
दूसरे को परितापन (ताड़न आदि दुःख) देने वाली क्रिया । दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात् पारितापनिकी क्रिया । (तवा ६.५.८) परितापनं - ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । (स्था २.८ वृ प ३८ )
पारिषद्य
पारिषद
वे देव, जो इन्द्र की परिषद् के सदस्य होते हैं । वे मित्रसदृश और पीठमर्द - नृत्य कला के प्रशिक्षक होते हैं । वयस्यपीठमर्दसदृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः ।
(ससि ४.४ )
(द्र पारिषद)
पारिहारिक
Jain (द परिहारिक )tional
(तभा ४.४ वृ)
(व्य १.१९ )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पारिहारिक कुल
१. वह कुल (घर), जहां आचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध और अतिथि मुनियों के योग्य आहार आदि की उपलब्धि होती है
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गुरु-गिलाण - बाल - वुड्ढ-आदेसमादियाण जत्थ पाउग्गं लभति ते परिहारियकुले । (निभा २७७७ चू)
२. वह कुल, जो जाति, कर्म, शिल्प आदि की दृष्टि से जुगुप्सित या अभोज्य है ।
गुरु - ग्लान- बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि कुलाि द्वा परिहारिकाणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानि । (बृभा २६९६ वृ)
(द्र स्थापना कुल )
पार्थिवी धारणा
पिण्डस्थ ध्यान का पहला प्रकार । साधक आसनस्थित होकर अपने आधारभूत स्थान - समुद्र, पर्वत आदि की विशालता और विशदता का अनुभव करता है, सर्वशक्तिसम्पन्न वीतरागस्वरूप की अनुभूति करता है, अनुभूति को पुष्ट करते-करते उसी में लीन हो जाता है।
तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धिं तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ॥ श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम्। आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ ॥ (योशा ७.१०,१२) स्वाधारभूतानां स्थानानां बृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः ॥ निजात्मन: सर्वसामर्थ्योद्भावनं पार्थिवी ॥ (मनो ४.१७, १८)
तत्रस्थस्य
पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान
अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार । वह अवधिज्ञान, जो शरीर के पार्श्ववर्ती - दाएं अथवा बाएं भाग से उत्पन्न होता है।
पासतो अंतगयं णाम वामतो दाहिणतो व त्ति ।
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(आवचू १ पृ५६)
पार्श्वस्थ
शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार ।
१. युक्तियों से बाहर ठहरने वाला - अयौक्तिक बात को मानने
वाला ।
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