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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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युक्तिकदम्बकाद् बहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः।
पिण्डावलग (सूत्र १.१.३२ वृ प ३३) वह भिक्षु, जो दीयमान पिंड-भिक्षा में आसक्त होता है। २. परलोक की क्रिया की व्यर्थता मानने वाला।
पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा। परलोकक्रियापार्श्वस्था वा नियतिपक्षसमाश्रयणात् परलोक
(उ ५.२२ चू पृ १३८) क्रियावैयर्थ्यम्।
(सूत्र १ वृ प ३३)
पिण्डैषणा ३. वह मुनि, जो कारण के बिना शय्यातरपिण्ड, अभ्याहृत
१. भिक्षा-आगमोक्त विधि से विशेष विकल्प के साथ पिण्ड, राजपिण्ड आदि दोषपूर्ण आहार का सेवन करता है। पार्श्वस्थः स यः कारणं तथाविधमन्तरेण शय्यातराभ्याहृतं
आहार ग्रहण करने के प्रकार। पिण्डैषणाएं सात हैं। नृपतिपिण्डं नैत्यिकमग्रपिण्डं वा भुङ्क्ते। (प्रसावृप २५)
पिण्डं समयभासया भक्तं तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः।
(स्था ७.८ वृ प३६८) पार्खापत्यीय
२. आचारचूला का प्रथम अध्ययन जिसमें पिण्डैषणा और
पानैषणा के विषय में आवश्यक निर्देश है। अर्हत् पार्श्व की उत्तरकालीन परम्परा में विद्यमान साधु । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावच्चिज्जे णियंठे...] पिपासा परीषह पासस्स अवच्चं पासावच्चं, नासौ पार्श्वस्वामिना प्रवाजितः, परीषह का एक प्रकार । प्यास से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के किन्तु पारम्पर्येण पापित्यस्यापत्यं पासावच्चिज्ज।
द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। (सूत्र २.७.८ चू पृ ४४९) तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्जसंजए।
सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे॥ पाषण्ड
छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे सुपिवासिए। जैन, बौद्ध, आजीवक आदि श्रमणों के संप्रदाय।
परिसुक्कमुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं॥ पासंडनामे-समणे पंडरंगे भिक्खू कावालिए तावसे
(उ २.४, ५) परिव्वायगे।
(अनु ३४४) पाषण्डधर्म
पिशाच श्रमण संप्रदायों का धर्म-आचार।
वानव्यंतर देव का आठवां प्रकार । इस जाति का देव सुरूप, पाखण्डधर्म:-पाखण्डिनामाचारः।
सौम्य आकृति वाला, हाथ तथा गर्दन में मणि और रत्नों के (स्था १०.१३५ वृ प ४८९)
आभूषण पहनने वाला होता है। इसका चिह्न है-कदम्ब
वृक्षा पिङ्गल
पिशाचा: स्वरूपाः सौम्यदर्शना हस्तग्रीवासु मणिरत्नविभूषणा: महानिधि का एक प्रकार। आभरणविधि का प्रतिपादक शास्त्र। कदम्बवृक्षध्वजाः।
_ (तभा ४.१२ वृ) सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिंगलगणिहिम्मि सा भणिया॥
पिहित (स्था ९.२२.४)
एषणा दोष का एक प्रकार। सचित्त से ढकी हुई वस्तु से पिण्डस्थ ध्यान
भिक्षा लेना।
सचित्तेन फलादिना स्थगितं पिहितम्। शरीर के किसी अवयव-सिर, भ्रू, तालु आदि का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान।
(योशा १, ३८ वृ पृ१३६) शरीरालम्बि पिण्डस्थम्॥
पुण्डरीक शिरो-भू-तालु-ललाट-मुख-नयन-श्रवण-नासाग्र-हृदय
तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं में जो श्रेष्ठ होता है। नाभ्यादि शारीरालम्बनानि। (मनो ४.११, १२)
तेरिच्छगा मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा। ते होंति पोंडरीया.......॥
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