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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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गरुडोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें गरुड देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से गरुड नामक देव उपस्थित हो जाता है। (द्र अरुणोपपात)
तस्सेवऽत्थस्स वइरेगधम्मपरिच्चाओ अण्णयधम्मसमालोगणं च गवेसणता भण्णति। (नंदी ४५ चू पृ ३६) ३. भोजन आदि ग्रहण करने के लिए उद्गम और उत्पादनगत दोषों की एषणा करना। आधाकर्मादिदोषपरिहारत उदगमं धात्र्यादि दोषपरित्यागतश्चोत्पादनां शुद्धामादधीत। (उ २४.११ शावृ प ५१७)
१. जन्म का एक प्रकार। जरायुज, अण्डज और पोतम ये गाढबन्धनबद्ध गर्भ से उत्पन्न होते हैं।
वह कर्मबंध, जो निकाचित होता है-परिवर्तनयोग्य नहीं गर्भोपपातसंमूर्च्छनानि जन्म।
होता। जराय्वण्डपोतजानां गर्भः। (जैसिदी ३.१४,१५) 'धणियं' ति गाढं बन्धनं-श्लेषणं तेन बद्धा निकाचिता २. वह स्त्री-गर्भाशय, जिसमें शुक्र और शोणित का मिश्रण इत्यर्थः।
(उ २९.२३ शावृ प५८५) होता है अथवा मां के द्वारा गृहीत आहार से जहां रस ग्रहण
गाणङ्गगणिक किया जाता है।
शबल का एक प्रकार । वह मुनि, जो विशेष कारण के बिना यत्र शुक्रशोणितयोः स्त्रिया उदरमुपगतयोर्गरणं मिश्रणं भवति
छह मास के भीतर ही गण-परिवर्तन करता है-एक गण से स गर्भः। मात्रोपयुक्ताहारात्मसात्करणाद् वा।
दूसरे गण में जाता है। (तवा २.३१)
अंतो छण्हं मासाणं गणातो गणं संकममाणे सबले। गर्भज
(दशा २.३) वह जीव, जो शुक्र और शोणित की प्रक्रिया से गर्भ में स्वेच्छाप्रवृत्ततया 'गाणंगणिए'त्ति गणाद् गणं षण्मासाभ्यउत्पन्न होता है।
न्तर एव संक्रामतीति 'गाणंगणिक' इत्यागमिकी परिभाषा। योविषयोनावकध्यमागत्य ग्रहणं शुक्ररक्तयोर्यत् क्रियते
(उ १७.१७ शावृ प ४३५,४३६) जीवेन जनन्यभ्यवहृताहाररसपरिपोषापेक्षं तद गर्भजन्मोच्यते।
गात्रउद्वर्तन (तभा २.३२ वृ)
अनाचार का एक प्रकार । शरीर पर पीठी आदि का उबटन गर्भावक्रान्तिक
करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। गर्भ से उत्पन्न होने वाला जीव। (प्रज्ञा १.८२) गायस्सुव्वट्टणाणि य।
(द ३.५) गर्हण
गात्राभ्यङ्ग गर्दा, दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना। अनाचार का एक प्रकार। शरीर पर तैलमर्दन करना, जो मुनि गर्हणेन-परसमक्षमात्मनो दोषोद्भावनेन।
के लिए अनाचरणीय है। (उ २९.८ शावृ प ५८०) गायब्भंगो शरीरब्भंणवामद्दणाईणि। (द ३.९ अचू पृ६२) गवेषणा
गीतार्थ १. मतिज्ञान का पर्यायवाची नाम । व्यतिरेकधर्म का अन्वेषण १. वह मुनि, जो छेदसूत्र के अर्थ का ज्ञाता होता है। करना।
विदितः-मुणितः परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन तं विदितार्थ गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा। (विभा ३९६७)
खलु वदन्ति गीतार्थम्।
(बृभा ६८९ वृ) २. ईहा की तीसरी अवस्था, जिसमें व्यतिरेकधर्म का परित्याग २. वह मुनि, जो सूत्रधर भी है और अर्थधर भी है। कर अन्वयधर्म का समालोचन होता है।
एकः सूत्रधरोऽप्यर्थधरोऽपि "तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुद्वोढुमर्हति।
(बृभा ६८९, ६९० वृ) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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