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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
चारित्रबोधि १. अप्राप्त चारित्र की प्राप्ति। (बृद्रसंवृ पृ. ११४) २. चारित्र की प्राप्ति के उपाय का चिंतन ।
(द्वाअ ८३) (द्र बोधि) चारित्रमोहनीय मोहनीय कर्म का एक प्रकार, जिसके उदय से चारित्र की चेतना मूर्च्छित होती है। चारित्रं-सावद्येतरयोगनिवृत्तिप्रवृत्तिगम्यं शुभात्मपरिणामरूपं तन्मोहयति। (प्रज्ञा २३.३२ वृ प ४६७,४६८) चारित्रविनय चारित्र के प्रति श्रद्धा, उसका आचरण और भव्य जीवों के समक्ष उसकी प्ररूपणा करना। सामाइयादिचरणस्स सद्दहणया तहेव काएणं। संफासणं परूवणमह पुरओ भव्वसत्ताणं॥
(स्था ७.१३० वृ प ३८८) चारित्रविनीत वह मुनि, जो आठ प्रकार के कर्मचय को रिक्त करता है और नया कर्म नहीं बांधता। अद्वविधं कम्मचयं, जम्हा रित्तं करेति जयमाणो। नवमन्नं च न बंधेति, चरित्तविणीओ भवति तम्हा।।
(दनि २९४) चारित्रवीर्य सम्पूर्ण कर्मक्षय करने और क्षीरास्रव आदि लब्धि (योगजविभूति) उत्पन्न करने की शक्ति। चरित्तवीरियं णाम असेसकम्मविदारणसामत्थं, खीरादिलद्धप्पादणसामत्थं च।
(निभा ४७ चू पृ २६) चारित्राचार चारित्र की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला समिति-गुप्ति रूप आचरण। पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहिं समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो अट्टविहो होति णायव्वो॥
(निभा ३५)
'आक्षेपः' चालना।
(बृभा ३०५ वृ) चिकित्सापिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार । वैद्य की तरह चिकित्सा कर भिक्षा लेना। वमन-विरेचन-वस्तिकादि कारयतो वैद्यभैषज्यादि सूचयतो वा पिण्डार्थं चिकित्सापिण्डः॥
(योशा १.३८ वृ पृ १३५) चित १. पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग। वह ज्ञान, जो आदि, मध्य और अंत कहीं से भी पूछे जाने पर तत्काल स्मृति में आ जाये। पुच्छितस्स आदिमझंते सव्वं वा सिग्घमागच्छति तं जितम्।
(अनु १३ चू पृ७) २. कर्म की वह अवस्था, जिसमें उत्तरोत्तर स्थिति में प्रदेश की हानि होने पर रसवृद्धि के रूप में अवस्थापित कर्मपरमाणुओं की संख्या कम होती जाती है और फल देने की शक्ति बढ़ती जाती है। 'चितस्य' उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्धयाऽवस्थापितस्य।
(प्रज्ञावृ प ४५९)
चित्त १. निश्चय-नय के अनुसार चित्त को आत्मा कहा जाता है। णिच्छयणयाभिप्याएण चित्त इत्यात्मा। (अनुचू पृ १३) २. आत्मा का परिणामविशेष, चेतना-परिणाम। चित्तं जीवो भण्णइ""चेयणाभावो भण्णइ।
(द ४ सू ४ जिचू पृ १३५) आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्। (ससि २.३२) ३. वह अध्यवसाय, जो अस्थिर है। ....."जं चलं तयं चित्तं"|| (आवहाव २ १६२) ४. योग-परिणाम । स्थूल शरीर के साथ काम करने वाली चेतना, जो मन, वचन और शरीर की प्रवर्तक है। जो पुण जोगपरिणामो अण्णोण्णेहिं अन्झवसाणेहिं अंतरितो सो चित्तम्।
(आवचू २ पृ६९) चित्रान्तरगण्डिका कण्डिकानुयोग का एक प्रकार, जिसमें भगवान् ऋषभ तथा
चालना
तत्त्वचर्चा के प्रसंग में प्रश्न उपस्थित करना। Jain Education International
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