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दर्शनबोधि : - दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धान
लाभ: ।
(स्था २ वृ प ९१)
(द्र बोधि)
दर्शनमोहनीय
मोहनीय कर्म का एक प्रकार, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधा डालता है।
दर्शनं - सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् ।
(प्रज्ञा २३.३३ वृ प ४६७)
दर्शनविनय
तीर्थंकर द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व के प्रति निःशङ्कित भाव से होने वाली श्रद्धा और समर्पण ।
दव्वाण सव्वभावा उवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दहति नरो दंसणविणयो भवति तम्हा ॥
(दनि २९२ )
दर्शनश्राद्ध
वह सम्यकदृष्टि, जो व्रती नहीं है ।
‘दर्शनश्राद्धः' अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवति । (बृभा १५४२ वृ) दर्शनसप्तक
मोहकर्म की वे सात प्रकृतियां, जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में अवरोध पैदा करती हैं । (बृभा ११८ वृ)
(द्र सम्यक्त्व)
दर्शनाचार
सम्यग्दर्शन की पुष्टि के लिए किया जाने वाला आचरण, जो निःशंकित आदि के भेद से आठ प्रकार का है। दर्शनं - सम्यक्त्वं तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टधा । (स्था ५.१४७ वृ प ३०९ ) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे
अट्ठ ॥ (उ २८.३१)
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दर्शनावरणीय कर्म
वह कर्म, जिसके उदय से दर्शन - सामान्य बोध आवृत होता है।
दर्शनं – ''''सामान्यग्रहणात्मको बोधः तस्यावरणीयं दर्शना - वरणीयम् । (प्रज्ञा २३.१ वृ प ४५३)
दशपूर्वर
(द्र दशपूर्वी)
दशपूर्वी
वह मुनि, जो दश पूर्वो (उत्पादपूर्व यावत् विद्यानुवादपूर्व) का अध्ययन कर चुका है।
(व्यभा ४०३)
दशमभक्त
चार दिन का उपवास ।
दशममुपवासचतुष्टयलक्षणम् । ''''दसमेणं''।” दिनचतुष्कानन्तरं
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
दशाश्रुतस्कन्ध
(व्यभा ४०३७)
(द्र दशा)
(प्रसावृ प १६९)
(द्र चतुर्थभक्त)
दशवैकालिक
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । श्रुतकेवली शय्यंभव द्वारा निर्यूढ वह आगम, जिसमें चरण - व्रत आदि, करणपिण्डविशुद्धि आदि तथा आचार - गोचर विधि का निरूपण किया गया है। (नन्दी ७७) अहिगारो । होंति ॥
अपुहत्तपुहत्ताइं निद्दिसिउं एत्थ होइ चरणकरणाणुयोगेण तस्स दारा इमे मागं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा । वेयालियाइं ठविया, तम्हा दसकालियं नामं ॥ (दनि ४,१४)
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भुक्तवान्।
दशा
कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें असमाधिस्थान, गणसम्पदा, पर्युषणाकल्प आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक ।
(आभा ९.४.७ )
(नन्दी ७८) काचित् प्रतिविशिष्टावस्था यतीनां यासु वर्ण्यते ता दशाः । (तभा १.२० ) असमाहि य सबलत्तं, अणसादण गणिगुणा मणसमाही । सावग- भिक्खूपडिमा कप्पो मोहो निदाणं च ॥ (दशानि ८ )
(बृभा ६९३ वृ)
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