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विप्पमुक्क त्ति वृत्तं भवइ ।
परिभाषा
प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना, क्रोधपूर्ण शब्दों में 'यहीं बैठ जाओ' का आदेश देना ।
परिभाषणं परिभाषा - अपराधिनं प्रति कोपाविष्कारेण मा यासीः । (स्था ७.६६ वृ प ३७८)
परिभोगैषणा
भोजन करते समय लगने वाले दोष ।
(द्र परिभोगैषणाशोधि)
(द ३.१५ जिचू पृ ११७)
परिभोगैषणाशोधि
१. भोजन करते समय संयोजना, अप्रमाण, अंगार-धूम और कारण- इन दोषों का वर्जन करना ।
२. परिभोग में पिण्ड, वसति, वस्त्र और पात्र - इस चतुष्क का शोधन करना ।
.....संजोयणमाइ पंचेव ॥ (द्र भावग्रासैषणा)
( उ २४.११)
परिभोयंमि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई । (उ२४.१२) परिभोगैषणायां चतुष्कं पिण्डशय्यावस्त्रपात्रात्मकम् "यदि वा...' चतुष्कं च' संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमकारणात्मकम्, अंगारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात् ।
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(उशावृ प ५१७) (पिनि ६६९)
परिमन्थु
अवश्य करणीय कार्य में व्याघात पैदा करने वाला, जैसेवाचालता सत्यवचन का परिमंधु है ।
साधुसमाचारस्य परि - सर्वतो मध्नन्ति - विलोडयन्तीति परि-मन्थवः । (बृभा ६३१३ वृ) छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता मोहरिए सच्चवयणस्स लिमं । (क ६.१९)
परिमाणकृत प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार । दत्ति, कवल, गृह, भिक्षा, द्रव्य आदि के परिमाणयुक्त प्रत्याख्यान । परिमाणं—संख्यानं दत्तिकवलगृहभिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तपरिमाणकृतम् । (स्था १०.१०१ वृ प ४७२ )
परिवर्तना
स्वाध्याय का तीसरा प्रकार । कण्ठस्थ ग्रथों की पुनरावृत्ति । परावर्त्तना - गुणनम् ।
(उ२९.२२ शावृ प ५८४)
परियट्टणं पुव्वपढितस्स अब्भसणं ।
(दअचू पृ १६)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
परिवर्तपरिहार
वनस्पति का परिवर्तनवाद । वनस्पति के एक शरीर से मरकर बार-बार उसी शरीर में उत्पन्न होना । 'वणस्सइकाइयाओ पउट्टपरिहारं परिहरंति' त्ति परिवृत्ययस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः -- परिभोगमृत्वा स्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तं परिहरन्ति – कुर्वन्तीत्यर्थः । (भग १५.७५ वृ)
परिवर्तित
उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु को देने के लिए वस्तु का विनिमय कर भिक्षा देना।
स्वद्रव्यमर्पयित्वा परद्रव्यं तत्सदृशं गृहीत्वा यद्दीयते तत् परिवर्तितम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३४)
परिवृत्य परिहार
परिषद्
१. इन्द्र की परिषद् के सदस्य ।
(द्र परिवर्तपरिहार)
परिश्रव
आत्मा का वह अध्यवसाय, जो कर्मों के निर्जरण का हेतु बनता है।
कर्मनिर्जरणहेतुरात्माध्यवसायः परिश्रवः । (आभा ४.१२)
(भग १५.७५ वृ)
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(सूत्र २.२.६९ चू पृ ३६७)
(द्र पारिषद)
२. श्रमणोपासक का परिवारविशेष, जैसे-माता-पिता आदि आभ्यन्तर परिषद्, दास-दासी, मित्र आदि बाह्य परिषद् । परिषदः - परिवारविशेषा:, यथा-मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिसद्, दासीदासमित्रादिका बाह्यपरिषदिति ।
(समप्र ९५ वृप १११ )
परिहरणदोष
वाद-दोष का एक प्रकार । वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु का छल
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