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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
चैतन्य की वह अवस्था, जिससे जीव आदि पदार्थ जाने जाते
खयोवसमियखाइएण वा भावेण जीवादिपदस्था णज्जंति इति णाणं।
(नन्दी २ चू पृ १३) २. ज्ञान चेतनात्मक है, जो आत्मा का स्वरूप है। ज्ञानं चेतना आत्मनः स्वरूपं इति। (तभा ६.११ व १२४)
आदि अतिचारों के द्वारा ज्ञान को सारहीन करने वाला उसकी विराधना करने वाला मुनि। स्खलितमिलितादिभिरतिचारैर्जानमाश्रित्यात्मानं असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः।
(स्था ५.१८५ वृप३२०) ज्ञानमाश्रित्य पुलाक स्तस्यासारताकारी विराधको ज्ञानपुलाक: खलियाइदूसणेहिं नाणं, संकाइएहिं सम्मत्तं। मूलुत्तरगुणपडिसेवणाइ चरणं विराहेइ॥
(भग २५.२७९ वृ)
ज्ञान आत्मा आत्मा का ज्ञानात्मक पर्याय। ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः ।
(भग १२.२००७)
ज्ञानप्रवाद पांचवां पूर्व, जिसमें ज्ञानमीमांसा–ज्ञान और उसके भेदों का प्रज्ञापन किया गया है। पंचमं णाणप्पवादं ति, तम्मि मतिणाणाइपंचकस्स सप्रभेदं प्ररूपणा जम्हा कता तम्हा णाणप्पवादं।
(नंदी १०४ चू पृ ७५) ज्ञानबोधि १. अप्राप्त सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिः।
(बृद्रसंवृ पृ ११४) २. ज्ञान की प्राप्ति के उपाय का चिंतन। (द्र बोधि)
ज्ञानकषायकुशील कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो ज्ञान के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर ज्ञान की विराधना करता है। णाणंदंसणलिंगे जो गँजड़ कोहमाणमाईहिं। सो नाणाइकुसीलो कसायओ होइ विन्नेओ॥ चारित्तंमि कुसीलो, कसायओ जो पयच्छई सावं। मणसा कोहाईए, निसेवयं होइ अहसुहुमो॥ अहवावि कसाएहिं नाणाईणं विराहओ जो उ। सो नाणाइकुसीलो णेओ वक्खाणभेएणं॥
(भग २५.२८३ वृ) ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । काल, विनय आदि ज्ञानाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला ज्ञानोपजीवी मुनि। ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गान्युपजीवन् प्रतिषेवणतो ज्ञानादिकुशीलः।
(स्था ५. १८७ वृ प ३२०) इह नाणाइकुसीलो उवजीवं होइ नाणपभिईए।
(भग २५.२८२ ) ज्ञान चेतना चेतना की वह अवस्था, जिसमें केवल (एक मात्र) ज्ञान का अनुभव किया जाता है। स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवति।
(ससाआ ३८६)
ज्ञानविनय आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान का ग्रहण, अभ्यास, स्मरण आदि का बहुमानपूर्वक प्रयोग करना। सबहुमानज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः ।
(तवा ९.२३) ज्ञानविनीत जो ज्ञान को ग्रहण करता है, गृहीत ज्ञान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य सम्पादित करता है तथा नए कर्मों का बंधन नहीं करता। नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि। नाणी नवं न बंधति, नाणविणीओ भवति तम्हा॥
(दनि २९३) ज्ञान संज्ञा ज्ञानावरण कमक क्षयापशम अथवा क्षय सहान वाला बाध।
ज्ञानपुलाक प्रतिसेवनाप लाक निग्रेन्थ का एक प्रकार । स्खलित. मिलित
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