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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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घनवात घनीभूत वायु, जो तनुवात पर प्रतिष्ठित है। घनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठितम्। (तवा ३.१) घनोदधि घनीभूत जल वाला समुद्र, जो घनवात पर प्रतिष्ठित है। घनोदधिवलयं घनवातवलयप्रतिष्ठितम् । (तवा ३.१) घर्मा अधोलोक (नरक) की प्रथम पृथ्वी का नाम । (द्र अञ्जना)
घोषसम गुरु के पास वाचना लेते समय गुरु द्वारा उच्चारित उदात्त आदि घोषों के अनुसार उच्चारण करना। उदात्तादिता घोसा तेजधा गुरूहिं उच्चारिया तधा गहितं ति घोससममिति।
(अनु १३ चू पृ७) घोषहीन ज्ञान का एक अतिचार । उदात्त आदि घोषरहित उच्चारण करना। घोषहीनम्-उदात्तादिघोषरहितम्।
(आव ४.८ हावृ २ पृ १६१) घ्राणेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (घ्राण) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा गंध का ग्रहण करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् "जिघ्रत्यनेनात्मेति घ्राणम्। (तवा २.१९)
घातिकर्म वह कर्म, जो आत्मा के मूल गुणों का घात करता है, जैसेज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अंतराय कर्म। आवरणमोहविग्धं घादी जीवगुणघादणत्तादो। आउगणामं गोदं वेयणीयं तह अघादि त्ति। (गोक ९) ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायचतुष्कं धाति, शेषचतुष्कं च अघाति।
(जैसिदी ४.४ वृ) (द्र अघातिकर्म)
घात्यकर्म
(जैसिदी ७.२२)
(द्र घातिकर्म)
घोरतपस्वी हिंस्र पशुओं एवं चोर आदि से घिरे हुए प्रदेश में आवास करने वाला तपस्वी मुनि।
"सिंहव्याघ्रादिव्यालमृगभीषणस्वनघोरचौरादिप्रचरितेष्वभिरुचितावासाश्च घोरतपसः। (तवा ३.३६) घोरब्रह्मचर्यवासी चिरकाल से अस्खलित ब्रह्मचर्य वाला। चारित्रमोह के प्रकृष्ट विलय (क्षयोपशम) के कारण जिसे दुःस्वप्न भी नहीं आते। चिरोषिताऽस्खलितब्रह्मचर्यवासाः प्रकष्टचारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रणष्टदुःस्वप्ना घोरब्रह्मचारिणः।
(तवा ३.३६)
घ्राणेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतुभूत घ्राण इन्द्रिय की प्रवृत्ति ।
(स्था १०.११) घ्राणेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय गन्ध में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह। इसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। घाणिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु गंधेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ॥
(उ २९.६५) घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । घ्राणेन्द्रिय की सहायता से होने वाला गंध का ज्ञान। (द्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष) घ्राणेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो सूंघने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६)
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