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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
एकत्वविक्रिया वैक्रिय लब्धि का एक प्रकार। अपने शरीर का सिंह आदि के रूप में परिवर्तन करना। एकत्वविक्रिया--स्वशरीरादपथग्भावेन सिंहव्याघहंसकुररादिभावेन विक्रिया।
(तवा २.४७)
ओर गति कर पुनः उसके उसी पार्श्व की ओर मुड़कर नियतस्थान में उत्पन्न होता है। इसमें दो या तीन घुमाव लेता है। उसके त्रसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है इसिलए इसे एकतः खा कहा जाता है। इसमें भी एकतोवक्रा, द्वितोवक्रा श्रेणी की भांति वक्र गति होती है किन्तु त्रसनाड़ी की अपेक्षा से इसका स्वरूप उनसे भिन्न है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'एगओखह' त्ति यया जीवः पुद्गलो वा नाड्या वामपाश्र्वादेस्तां प्रविष्टस्तयैव गत्वा पुनस्तद्वामपाश्र्वादावुत्पद्यते सा एकतः खा, एकस्यां दिशि वामादिपावलक्षणस्य भावादिति, इयं च द्वित्रिचतुर्वक्रोपेताऽपि क्षेत्रविशेषाश्रितेति भेदेनोक्ता, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ८६८) एकतोवक्रा श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । जीव अथवा पुद्गल की एक घुमाव वाली गति का पथ। मूलतः आकाशश्रेणियां ऋजु (सीधी) ही होती हैं। एक दिशा से दूसरी दिशा में गमन । करने की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। यह तब होता है। जब च्यवन-स्थान की अपेक्षा से उत्पत्ति-स्थान उसी प्रतर में, किन्तु विश्रेणि में होता है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करते-करते दूसरी श्रेणि में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवक्रा श्रेणी' कहा जाता है, जैसे-कोई जीव या पुद्गल नीचे लोक की पूर्व दिशा में च्युत होकर ऊंचे लोक की पश्चिम दिशा में जाता है तो पहले-पहल वह ऋजुगति के द्वारा ऊंचे लोक की पूर्व दिशा में पहुंचता है-समश्रेणी गति करता है। वहां से वह पश्चिम दिशा की ओर जाने के लिए एक घुमाव लेता है। इस गति में दो 'समय' लगते हैं। (देखें चित्र पृ ३४१) 'एगओ वंक' त्ति 'एकत' एकस्यां दिशि वङ्का' वक्रा यया जीवपुद्गला ऋजु गत्वा वक्रं कुर्वन्ति-श्रेण्यन्तरेण यान्तीति, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ४६८) एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
(भग ३४.३) यदापुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे विश्रेण्यां वर्त्तते तदैकतोवक्रा श्रेणिः स्यात् समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्यादित्यत उच्यते। (भग ३४.३ वृ प ९५६, ९५७)
एकत्ववितर्कअविचार शुक्लध्यान का दूसरा चरण । एकत्व का अर्थ अभेद. वितर्क का अर्थ श्रुत और अविचार का अर्थ असंक्रमण है। एकत्व का चिन्तन करने वाला ध्यान एकत्ववितर्क है। इसमें एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर एवं एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन नहीं होता। अत: यह अविचार है। एगत्तवियक्के ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थो वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणः।
(स्था ४.६९ वृ प १८०) (द्र पृथक्त्ववितर्कसविचार) एकत्वअनुप्रेक्षा चतुर्थ अनुप्रेक्षा । आत्मा के एकत्व का अनुचिन्तन । रोग, जरा, मरण आदि दुःखों में कोई भागीदार नहीं बनता, स्वकृत कर्मफल स्वयं को ही भोगना होता है इसका अनुचिन्तन करना, अपनों के प्रति राग और परायों के प्रति द्वेष से अलग होकर आत्मा के अकेलेपन का पुनः-पुनः चिन्तन करना। एक एवाहं न मे कश्चित् स्वः परो वा विद्यते। एक एवाहं जाये एक एक म्रिये"एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत्। एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहानुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७) एकपाक्षिक वह मुनि, जो एक ही आचार्य के पास प्रव्रज्या और श्रुतदोनों ग्रहण करता है। अथवा दीक्षित होकर एक ही गण में रहता है।
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