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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अवग्रहादुत्तरकाल.............मतिविशेषः।
(नन्दी ३९ मवृ प १६८)
उक्त अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। शब्दोच्चारण के द्वारा विषय का ग्रहण, जैसे-वीणा के शब्द सुनकर राग (धुन)को ग्रहण करना।
(तवा १.१६.१६)
उच्छ्वासनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव को श्वासोच्छ्वास की शक्ति प्राप्त होती है। यदुदयवशादात्मन उच्छ्वासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुच्छ्वासनाम। (प्रज्ञा २३.५५ वृ प ४७३) उच्छ्वासनिःश्वास पर्याप्ति
(जैसिदी ३.११) (द्र आनापान पर्याप्ति)
उग्रतप उपवास आदि किसी भी अनशन तपोयोग को स्वीकार कर जीवनभर निर्वाह करने वाला। चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः। (तवा ३.३६)
उच्छ्वासनिःश्वास प्राण वह प्राण, जो श्वासोच्छ्वास की शक्ति के लिए उत्तरदायी
(प्रसा १०६६ वृ प३१४) उज्झितधर्मा पिण्डैषणा का एक प्रकार । जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। भोयणजायं जं छड्डणारिहं नेहयंति दुपयाई। अद्धच्चत्तं वा सा उज्झियधम्मा भवे भिक्खा।
(प्रसा ७४३)
उच्चगोत्र गोत्र कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव जातिविशिष्टता, बल-विशिष्टता आदि का अनुभव करता है। यदुदयवशादुत्तमजातिकुलबलतपोरूपैश्वर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुच्चैर्गोत्रम्।
(प्रज्ञा २३. ५८ वृ प ४७५) उच्चारप्रस्रवणसमिति उच्चारप्रस्रवणक्ष्वेलसिंघानजल्लपरिष्ठापनिका समिति।
(सम ५.७) (द्र उत्सर्ग समिति)
उत्कालिक श्रुत आगम का एक वर्ग, जो अकाल के सिवाय सभी प्रहरों में पढा जा सके। कालवेलावर्जं पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकम्।
(स्था २.१०६ वृ प ४८)
उच्छन्नज्ञानी जिस ज्ञानी का ज्ञान कुछ समय के लिए ज्ञानावरण कर्म के उदय से आच्छादित हो गया हो। ""तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण याणति, जाणित्ता वि ण याणति, उच्छण्णणाणी यावि भवति णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं।
(प्रज्ञा २३.१३)
उत्कुटुका निषद्या का एक प्रकार। पुतों को भूमि से छुआए बिना पैरों के बल पर बैठना। आसनालग्नपुतः पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका।
(स्था ५.५० वृ प२८७)
ना।
उच्छ्वास श्वासोच्छवास प्राण के द्वारा श्वास-योग्य पुद्गलों का ग्रहण।
(भग १.१४ भा)
उत्कृष्ट आतापना अधोरुकशायी, पार्श्वशायी और उत्तानशायी की शयन मुद्रा में लिया जाने वाला सूर्य का आतप। निप्पन्नस्योत्कृष्ट: "निप्पन्नातापनाऽपि त्रिधा-अधोरुकशायिता पार्श्वशायिता उत्तानशायिता चेति।
(औपवृ प ७५)
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