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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
धर्मिणि साधनस्योपसंहार उपनयः । यथा धूमवांश्चायम्।
(प्रमी २.१.१४) २. जो नय के समीप होता है, नय न होते हुए भी नयतुल्य होता है वह उपनय कहलाता है, जैसे- सदभुत व्यवहारनय। नयानां समीपा उपनयाः।
(आप३७)
उपपात जन्म का एक प्रकार । देवों और नारकों का क्रमशः शय्या एवं कुम्भी में उत्पन्न होना। 'उववाए'त्ति उपपतनमुपपातो-देवनारकाणां जन्म।
(स्था १.२८ वृ प १९)
तत्रोपबंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम्।
(दहावृ प १०२) उपभोग वह पदार्थ, जिसका बार-बार उपयोग किया जाता है, जैसेवस्त्र, भाजन आदि। पुनः पुनर्भुज्यते इत्युपभोगो वस्त्रालंकारादि, उक्तं च." उवभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ वत्थविलयाइ।
(प्रज्ञा २३.५९ वृ प ४७५) उपभोगपरिभोगपरिमाण गृहस्थधर्म का सातवां व्रत । पदाची के उपभोग और परिभोग का सीमाकरण।
(उपा १.३७) उपभोगपरिभोगातिरिक्त अनर्थदण्डविरमण व्रत का एक अतिचार । खान-पान, स्नान आदि प्रवृत्तियों के लिए आवश्यक वस्तुओं का अपेक्षा से अधिक उपयोग करना। उपभोगपरिभोगविषयभूतानि यानि द्रव्याणि स्नानप्रक्रमे उष्णोदकोद्वर्तनकामलकादीनि, भोजनप्रक्रमे अशनपानादीनि, तेषु यदतिरिक्तम्-अधिकमात्मादीनामर्थक्रियासिद्धावाप्यवशिष्यते तदपभोगपरिभोगातिरिक्तम।
(उपा १.३९ वृ पृ १७)
उपपातगति क्षेत्र, भव और नोभव से संबद्ध गति। उपपात:--प्रादुर्भावः, सच क्षेत्रभवनोभवभेदात् त्रिविधः... उपपात एव गतिरुपपातगतिरिति।
(प्रज्ञ. ६.२४ वृ प ३२८) (द्र क्षेत्रोपपातगति, भवोपपातगति, नोभवोपपातगति)
उपपातज बिना गर्भ के अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण विकसित शरीर के साथ जन्म लेने वाला। देवता और नारक का जन्म इसी प्रकार होता है। उपपाताजाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका-देवा नारकाश्च। (द ४.९ हाव प १४१) (द्र उपपात)
उपभोगान्तराय अंतराय कर्म की एक प्रकृति. जिसके उदय से उपभोग्य पदार्थ के होने पर भी व्यक्ति उसका उपभोग नहीं कर पाता। स्त्रीवस्त्रशयनाऽऽसनभाजनादिरूपो भोगः।पुनः पुनरुपभुज्यते हि सः"स सम्भवन्नपि यस्य कर्मण उदयान्न परिभुज्यते तत् कर्म उपभोगान्तरायाख्यम्।
(तभा ८.१४ वृ)
उपपातसभा वह कक्ष, जहां इन्द्र उत्पन्न होता है। उपपातसभा यस्यामुत्पद्यते। (स्था ५.२३५ व प३३४)
उपपाद देवनारकामुपपादः। (द्र उपपात)
(तवा २.३४)
उपयुक्त वह व्यक्ति, जो करणीय कार्य में दत्तचित्त है। उपयुक्तश्च भावतो दत्तावधानः। (उ २४.८ शावृ प५१५) उपयोग ज्ञान और दर्शन रूप चेतना का व्यापार। चेतनाव्यापार: उपयोगः।
(जैसिदी २.३)
उपबृंहण सम्यक्त्व का पांचवां आचार। साधर्मिकों के सद्गुणों की प्रशंसा कर उनको वृद्धिंगत करना।
उपयोगआत्मा आत्मा का ज्ञान, दर्शन की प्रवृत्ति वाला पर्याय ।
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