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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
कृत्वा तत्र छायार्थिनः समागतान् नारकान् वराकान् अस्यादिभिः पाटयन्ति, तथा.....स्फिगूरूबाहुनां.....शातनादीनि विकुर्वितवाताहतचलिततरुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्ति।
(सूत्रनि ७७ वृ प ८४) असिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। युद्धभूमि में अप्रतिहत शक्ति वाला और अचूक वार करने वाला खड्ग। खड्गरत्नं-संग्रामभूमावप्रतिहतशक्तिः । (प्रसावृप ३५०)
२. उत्पाद-पर्याय। अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमड़। (भग १. १३३) ३. सामान्य गुण का एक प्रकार। पदार्थ का मौलिक धर्म, सत्ता या विद्यमानता। अस्तित्वं भावानां मौलो धर्मः सत्तारूपत्वम्।
(तभा २.७ वृ) (द्र सामान्य गुण) अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व चौथा पूर्व । इसमें अस्तित्व और नास्तित्व का प्रज्ञापन किया गया है। चउत्थं अस्थिणस्थिप्पवादं, ज लोये जहा अस्थि जहा वा णत्थि, अहवा सितवादाभिप्पादतो तदेवास्ति नास्तीत्येवं प्रवदति।
(नन्दी १०४ चू पृ७५)
असुर वह देव, जिसका समावेश भवनपति और व्यंतर की श्रेणी में होता है। न सुरा असुरा:-भवनपतिव्यन्तराः । (स्था १.४१ ७ प २०)
असुरकुमार भवनपति देव का एक प्रकार। वह देव, जिसका शरीर कृष्णवर्ण वाला और विशाल होता है तथा जिसका चिह्न है चूड़ामणि। गंभीराः श्रीमन्तः काला महाकाया रत्नोत्कटमुकुटभास्वराश्चूडामणिचिह्ना असुरकुमारा भवन्ति। (तभा ४.११ वृ) अस्तिकाय जिनका विभाग न हो सके वैसे प्रदेशों का स्कन्ध, जैसेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय । समग्र जीव-राशि---जीवास्तिकाय समग्र परमाणु-राशि, जैसेपुद्गलास्तिकाय। दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं अधम्मस्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं आगासत्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं। दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाइं। (भग २. १२५-१२९)
अस्तेय महाव्रत
(जैसिदी ६.६) (द्र सर्वअदत्तादानविरमण) अस्थितकल्प वह कल्प, जो मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय अनिवार्य नहीं था, जैसे-आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण आदि। आचेलक्ये औद्देशिके प्रतिक्रमणे राजपिंडे मासकल्पे पर्युषणाकल्पेच सततसेवनीयत्वाभावान्मध्यमजिनसाधनामस्थितकल्पो ज्ञातव्यः, ते ह्येतानि स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीति।
(प्रसा ६५१ वृ प १८५) (द्र स्थितकल्प)
अस्तिकायधर्म पांच अस्तिकायों का स्वभाव। (स्था १०.१३५) (द्र अस्तिकाय) अस्तित्व १. सत्-जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। (तसू ५. २९)
अस्थिरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जिह्वा आदि अवयव अस्थिर हो जाते हैं और कृश हो जाते हैं। यदुदयवशाज्जिह्वादीनामवयवानामस्थिरता भवति तदस्थिरनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) (द्र स्थिरनाम) अस्पृशद्गति १. वह गति, जिसमें एक परमाणु-पुद्गल दूसरे परमाणु-पुद्गलों व स्कन्धों का स्पर्श किये बिना गति करता है। अफुसमाणगती-जण्णं एतेसिं चेव अफुसित्ता णं गती
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