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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अविभाग परिच्छेद वह अंश, जिसका और अंश न हो सके, न किया जा सके। अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्यविभागपरिच्छेदाः, निरंशा अंशा इत्यर्थः।
(भग ८.४७९ वृ) अविरतसम्यग्दृष्टि जीवस्थान जीवस्थान/ गुणस्थान का चौथा प्रकार। सम्यग्दृष्टि होने पर भी जो अविरत है, असंयत है, उसकी आत्मविशुद्धि। अविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतिरहितः। (सम १४.५ ७ प २६)
अव्यक्तिकवाद प्रवचननिह्नव का तीसरा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, सब कुछ अनिश्चित है, अव्यक्त है। अव्यक्तं-अस्फुटं वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां तेऽव्यक्तिकाः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना।
(स्था ७.१४० वृ प ३८९) अव्यथ शुक्लध्यान का एक लक्षण । देवों द्वारा कृत उपसर्ग से भयभीत या विचलित न होना। 'अव्वहे'त्ति देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम्। (स्था ४. ७० वृ प १८१) अव्यवहारराशि जीवों का अक्षय कोष।
(जैतवि १.१) (द्र असांव्यवहारिक जीव)
अविरति अप्रत्याख्यान मोह के उदय से आत्मा का हिंसा आदि में होने वाला अत्यागरूप अध्यवसाय। अप्रत्याख्यानमविरतिः। अप्रत्याख्यानादिमोहोदयात् आत्मनः आरम्भादेरपरित्यागरूपोऽध्यवसाय: अविरतिरुच्यते। (जैसिदी ४.२० वृ) अविरति आश्रव आत्मा का अविरतिरूप परिणाम, जो कर्म-पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) (द्र आश्रव) अविशोधिकोटि १. वे द्रव्य, जिनका परिवर्तित रूप में भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। २. वे दोष, जिनका किसी भी स्थिति में शोधन नहीं होता, जैसे-आधाकर्म आदि छह उद्गमदोष। (द्र विशोधिकोटि)
अव्याकृता असत्यामृषा (व्यवहार)भाषा का एक प्रकार। वह भाषा, जिसमें शब्दों का अर्थ अति गंभीर हो और अक्षर का प्रयोग भी स्पष्ट न हो। अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा अविभावितार्थत्वात्। (प्रज्ञा ११. ३७ वृ प २५९)
अव्याप्त लक्षणाभास का एक प्रकार । वह लक्षण, जो लक्ष्य के एक देश में मिलता है, जैसे-पशु वह होता है, जिसके विषाण होते हैं। लक्ष्यैकदेशवृत्तिरव्याप्तः। यथा-पशोर्विषाणित्वम्।
(भिक्षु १.७ वृ)
अविहेटक वह मुनि, जो आक्रोश, ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को । तिरस्कृत नहीं करता। अविहेडए णाम जं परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति।
(द १०.१० जिचू पृ ३४३) अव्यक्त आलोचना आलोचना का एक दोष । अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना। अगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालोचनं तत्सम्बन्धादव्यक्तमुच्यते।
(स्था १०.७० वृ प ४६१)
अव्याबाध १. वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक आदि रोगों का न होना। जं मेवातिय-पित्तिय-संभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता नो उदीरेंति, सेत्तं अव्वाबाहं।
(भग १८.२११) २. वह सुख, जो निरन्तर हो, जिसके मध्य कोई विघ्न बाधा न हो।
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