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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास | १६
(२) मण्डल बंध - सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना । (३) चारक - बन्दीगृह में बन्द करने का दण्ड देना । (४) छविच्छेद - अंगोपांगों के छेदन का दण्ड देना । 1 समाज की सुव्यवस्था के लिए इन्हीं के युग में सहयोग नीति का प्रचलन हुआ तथा वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आई ।
साम-दाम-दण्ड-भेद - राजनीति की इन चार नीतियों और इनके सिद्धान्त निर्धारित किये गये | 2
तदुपरांत जब वे साधना - मार्ग पर चलने को उद्यत हुए उस समय उन्होंने अपना विशाल राज्य अपने सभी पुत्रों में विभाजित किया । बड़े पुत्र भरत को विनीता (अयोध्या) नगरी का राज्य दिया तथा अन्य पुत्रों को अन्य नगरियों का राज्य प्रदान किया। इस प्रकार उन्होंने उत्तराधिकार नीति निर्धारित की ।
इस नीति का उद्देश्य था राज्य के लिए भाइयों के संघर्ष को समाप्त
करना ।
कैवल्य प्राप्त करने के बाद इन्होंने धर्म- धर्मनीति - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का मर्म बताया। साधु और श्रावक (गृहस्थ ) के धर्म और नीति का प्रचलन किया ।
यों कर्मनीति के बाद धर्म नीति का विकास हुआ ।
इसीलिए आवश्यकचूर्ण में कहा गया है कि ऋषभस्वामी सभी प्रकार की नीतियों के आदि पुरस्कर्ता थे ।
यह मत जैन विद्वानों का ही नहीं अपितु वैदिक विद्वानों का भी है । श्रीमद्भागवत' में भी इन्हें नीति और धर्म के संस्थापक के रूप में स्वीकार किया गया है ।
१ स्थानांग वृत्ति ७ । ३ । ५५७ - - वहां हाकार से लेकर छविच्छेद तक सात नीतियों का वर्णन है ।
२ त्रिषष्टि० १ २६५६
३ (क) उवदिसत्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ ।
(ख) कल्पसूत्र ( पुण्यविजयजी ) १६५।५७
( ग ) त्रिषष्टि० १।३।१-१७
णीतीओ उसभसामिम्मि चेव उप्पन्नाओ ।
४,
५. श्रीमद्भागवत ५।५।२८।५६३
-- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ३६।७७ ( अमोलक ऋषिजी )
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- आवश्यकचूर्ण १५६
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