________________
३६६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मानवतावाद - पश्चिमी जगत में मानवतावाद के बीज प्लेटो, अरस्तु, आदि के दर्शनों में भी खोजे जा सकते हैं । किन्तु आधुनिक युग में सी. वी. बार्नेट आदि पश्चिमी चिन्तक इस विचारधारा के प्रतिनिधि हैं ।
मानवतावादी मानवीय गुणों में ही नैतिकता के दर्शन करते हैं । वह वर्तमान जीवन को ही महत्व प्रदान करते हैं, लोकोत्तर जीवन की चर्चा का इनकी दृष्टि में विशेष महत्व नहीं है । इनका मत है कि मानव को अपना वर्तमान जीवन नैतिक बनाना चाहिए । सद्गुणों का आचरण ही इनका अभिप्रेत है ।
वह भी वर्तमान उसका तो उद्
जैन-नीति का भी इस मत से कोई विरोध नहीं है, के प्रत्येक क्षण को नैतिकतापूर्ण जीने की प्रेरणा देती है । घोष है - वर्तमान को सुधारो, भविष्य अपने आप सुधर जायेगा । जैनदर्शन सम्मत अप्रमत्तता की साधना वर्तमान में जागरूकता - सद्गुणपूर्ण नैतिक / धार्मिक / सदाचारी जीवन जीने की ही तो प्रेरणा है ।
मानव जीवन को भगवान महावीर ने भी दुर्लभ बताया है और प्रेरणा दी है कि मानव जन्म पाकर सद्कर्म ही करने चाहिए ।"
इनके अतिरिक्त आत्मचेतनावाद, वैयक्तिक नीतिवाद आदि अनेक प्रकार के नैतिक वाद प्रचलित हैं, किन्तु उनमें थोड़े-थोड़े अन्तरों के होते हुए भी शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित आदि के प्रत्यय और उनके कारण तथा परिणाम लगभग समान ही हैं, अधिक भेद नहीं है ।
लेकिन साम्यवाद एक ऐसा वाद है, जिस की आधारशिला अर्थ अथवा धनोत्पादन के साधनों पर रखी गई है । नैतिक जगत में उस का कोई विशेष मूल्य नहीं है । वह तो वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देता है और असंतुष्टि की ऐसी अनबुझ प्यास जगाता है कि मानव का मन-मस्तिष्क उद्व े - लित ही रहता है । साम्यवाद सभी व्यक्तियों की समानता का ऊपर से थोपा हुआ सिद्धान्त है जो धन की सीमाओं में घुटकर रह गया है ।
यद्यपि जैन दर्शन में साम्यवाद है; किन्तु उसका स्वरूप भिन्न है, वह आत्मिक साम्यवाद है, जिसे समता कहा गया है । वह ऐसा समत्व है, जो मानव हृदय को शांत बनाता है, अन्तर् आत्मा से प्रस्फुटित होता है, वह
१ (क) माणुस्सं सुदुल्लाहं ( ख ) भवेषु मानुष्य भवं प्रधानं । तुलना करिए - किच्छोमणुस्स पडिलाभो । न मानुषात् श्र ेष्ठतरं हि किंचित्
- अमितगति
- धम्मपद १८२
- महाभारत शान्तिपर्व २६६ / २०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org