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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४७३
मन
मणुस्सहिदयं पुणिणं गहणं दुम्वियाणकं ।
..-इसिभासियाई १/८ मनुष्य का मन बड़ा गहरा है । इसे समझ पाना कठिन है। मनुष्य
मण्णंति जदो णिच्चं पणेण मिउणा जदो दु ये जीवो। मण उक्कडा य जम्हा ते माणुसा भणिया ॥
-पंचसंग्रह १/६२ वे मनुष्य कहे जाते हैं जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय (त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य), तत्त्व-अतत्त्व तथा धर्म-अधर्म का विचार करते हैं, कार्य करने में निपुण हैं और उत्कृष्ट मन के धारक हैं। मनोविजय सुण्णीकयम्मि चित्ते, णूणं अप्पा पयासेइ ।
-आराधनासार ७४ मन को (विषय-कषाय, आवेग-संवेगों, इच्छा-अभिलाषाओं से) खाली कर देने पर उसमें आत्मा का आलोक झलकने लगता है। मानव स्वभाव
लुद्धा नरा अत्थपरा हवंति, मूढा नरा कामपरा हवंति । बुद्धा नरा खन्तिपरा हवंति, मिस्सा नरा तिन्निवि आयरंति ।।
-गौतम कुलक १ लोभी मनुष्य धन एकत्र करने में लगे रहते हैं, मूर्ख मनुष्य कामभोगों में डूबे रहते हैं, बुद्धिमान पुरुष क्षमा प्रदान करने वाले होते हैं और चौथे प्रकार के मनुष्य इन तीनों का ही (धन-संग्रह, काम-भोग और क्षमा) विवेकपूर्वक आचरण करते हैं। माया
मायी विउव्वइ नो अमायी विउव्वइ माया
-भगवती सूत्र १३/६ कपटी व्यक्ति अनेक रूपों का प्रदर्शन करता है, जिसके हृदय में कपट नहीं होता वह नहीं करता। सरल सदा समरूप रहता है ।
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