Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 521
________________ सुभाषित वाणी परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४७९ सुभासिया भासा सुकडेण य कम्मुणा । पज्जुण्णे कालवासी वा, जसं तु अभिगच्छति ॥ सुभाषित वाणी और सुकृत कर्मों के द्वारा मानव समय पर बरसने वाले मेघ के समान यश को प्राप्त करता है । हितकर अहितकर है । - इसिभासियाई ३३ / ४ -- — गौतम कुलक ४ क्रोध जहर के समान घातक है किन्तु अहिंसा अमृत है । अभिमान शत्रु है और अप्रमाद हितकारी मित्र है । माया भय है और सत्य शरण है । लोभ दुःख है और सन्तोष सुख है । क्षमा कोहो विसं किं अमयं अहिंसा, माणो अरी किं हियमप्पमाओ । माया भयं किं सरणं तु सच्चं लोहो दुहं किं सुहमाहु तुट्ठी । सीलं वरं कुलाओ, दालियं भव्वयं च रोगाओ । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुट्ठ वि तवाओ || कुल से शील श्रेष्ठ है, रोग से दारिद्रय श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ है और क्षमा बड़े से बड़े तप से भी श्र ेष्ठ है । ज्ञान Jain Education International नाणे नाणुवदेसे, अवमाणो अन्नाणी । - निशीथभाष्य ४७९ १ जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता, वह ज्ञानी भी अज्ञानी न नाणमित्तण कज्जनिष्पत्ती । - वज्जालग्ग ८ / ५ राज्य से विद्या जान लेने मात्र से कार्य सिद्धि नहीं हो सकती । सव्वज गुज्जोयकरं नाणं । - आवश्यक नियुक्ति ११५१ - व्यवहारभाष्य ७ / २१६ ज्ञान संसार के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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