Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 535
________________ परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य को सूक्तियां | ४६३ दानदाता जो सबही को देत है, दाता कहिए सोइ । जलधर बरसत सम-विषम थल न विचारति कोइ। -वृन्द सतसई, १०० दुष्ट 'रहिमन' ओछे नरन सों बैरभलो ना प्रीति । काटे चाटे स्वान के दुहूँ रीति विपरीत ॥ -रहीम दोहा० पृ० १७६ नीचन के व्यौहार विसाहा हँसि के मांगत दम्मा। आलस नींद निगोड़ी घरे 'घग्घा' तीनि निकम्मा ।। -घाघ, पृ० ३७ दोष तरुनाई धन देह बल बहु दोषनु आगार । बिनु विवेक रत्नावली. पशुसम करत विचार । -रत्नावली दो०८४ धन रोय-रोय के पाइये रुपिया जिसका नाम । . जब जाये फिर रोइये इहमुख जिसको नाम । -गिरिधर कुण्ड० २०७ टका करै कुल हूल, टका मिरदंग बजावै । टका चढ़े सुखपाल, टका सिर छत्र धरावै ॥ टका माय अरु बाप, टका भैयन को भैया। टका सास अरु ससुर, टका सिर लाड़ लड़या ॥ अब एक टके बिनु टकटका रहत लगाये रात दिन । वैताल कहै विक्रम सुनो, धिक जीवन इक टके बिन । -कविता कौमुदी भाग १; पृ. ३६६ मीत न नीत गलीत है, ना धन धरिये जोर । खाए खरचे जो बचे, तो जोरिए करोरि ॥ -बिहारी सतसई ६४६ खरचत खात न जात धन, औसर किये अनेक । जात पुण्य पूरन भए, अरु उपजे अविवेक ॥ -वृन्द सतसई, ६१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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