Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 537
________________ निर्बल पड़ौसी परोपकार परिवार पुत्र परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य की सूक्तियां | ४६५ नारि नसावे तीनि सुख, जा नर पास होइ । भगति मुकति निज ग्यान में, पैसि न सकई कोय | कहैं इहै सब स्रुति स्मृति, इहै तीन दबावत निसक ही, पातक सयाने लोग | राजा रोग | -- कबीर ग्रन्थ० पृ. ४० निर्बल को न सताइये, जाकी मरी खाल की सांस सैं, लोह भस्म है विपत परै सुख पाइये, जो ढिंग नैन सहाई बधिर के, अन्ध सहाई Jain Education International - बिहारी सतसई ६३४ मोटी आह । पड़ोसी सूं रूसणा, तिल-तिल सुख की हाणि । जननी जनै तो एक सुत, कै नहीं तर जननी बांझ रह, मती परहित कर बरनत न बुध, गुपति रखहिं पर उपकृति सुमिरत रतन, करत न निज जाय ॥ - सूक्ति सुधा, पृ. ६ - कबीर ग्रन्थ० पृ. ३७ करिए भौन । जोगी कुल मारग छोड़े न कोउ होहु कितै की हानि । 'गज इक मारत दूसरो चढ़त महावत आनि ॥ - वृन्द सतराई, रतन वाँझ रहिवौ भलो, पै न होउ कपूत । बाँझ रहै तिय एक दुख पाइ कपूत अकृत ॥ श्रीन ॥ - वृन्द सतसई, दै दान | गुन गान ॥ - रत्नावली दो० १८२ For Personal & Private Use Only २४७ के सूर । गंवाजे नूर ॥ - रत्नावली दोहा० १८५ पु. ६६ www.jainelibrary.org

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