Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 544
________________ ५०२/ जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सुख-दुख सुख बीते दुःख होत है, दुःख बीते सुख होत । दिवस गये ज्यों निस उदित, निस गत दिवस उदोत ।। -वृन्द सतसई ११० संगठन निर्बल हू दल बाँधिके, सबलहिं देत हराय । ज्यों सींगन सौ गाय गन, वनपति हेति भगाय.।। - -दुलारे दो० १७५ संतोष नहिं धन धन है परम, धन तोषहिं कहैं प्रवीन । बिन संतोष कुबेरऊ दारिद दीन मलीन ॥ -दृष्टान्त तरंगिणी, पृ. ३२ संसार यह ऐसा संसार है, जैसा सेवल फूल । दिन दस के व्यवहार कौं, झूठे रागि न भूल । __-कबीर ग्रन्थ, पृ. २१ संस्कार बारेपन सौं मातु-पितु जैसी डारति बान । सो न छुटाए पुनि छुटत रतन भयहु सयानि ।। -रत्नावली दोहा० १३८ बालहि लालहु अस रतन जो न औगुनी होइ । दिन-दिन गुन गरुता गहै साँचौ लालन सोइ । -रत्नावली दोहा० १८७ स्वार्थ सुर नर मुनि सब कर यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।। -मानस सूक्त पृ. ११७ सांई सब संसार में मतलब का व्यवहार । -गिरिधर कुण्ड० ३६ बिन स्वारथ कैसे सहै, कोऊ करुवै वैन । लात खाय पुचकारिए, होय दुधारु धैन ॥ --वृन्द सतसई १४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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