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परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य की सूक्तियां | ४६१
उद्योग
उद्योगी को ऊसरों में मिलता है रत्न । किसी काल में हो नहीं जीवन रहित प्रयत्न ।।
-विव्य दोहा० ६७१
सब काहू को भूल के करज दीजिए नाहिं। दीजै तो ना कीजिए झगरौ आपुन माहिं ।।
-जान, पन्दनामा स्वजन सखी सों जनि करहु कबहूँ ऋन व्यवहार । ऋन सौं प्रीति, प्रतीति तिय रतन होति सब छार ।।
-रत्नावली दोहा० १४०
एकता
सुबल सुमंत्र सुकर्म जहँ, जहाँ एका सु विचार । तहँ सुख सम्पत्ति जय सदा, उन्नति होति अपार ।।
-ब्रज सतसई पृ० ३७
कपट
फेर न ह हे कपट सौं जो कीजे व्यापार । जैसे हाँडी काठ की, चौँ न दूजी वार ।।
-वृन्द सतसई ३५
बेकारी सबसे बुरी, निपट निराशा खान । आशा बसती कर्म में, कर्म करें विद्वान ।।
-नीति के दोहे
काम
रतनावलि उपभोग सौं होत विषय नहिं सांत । ज्यों-ज्यों हवि होमें अनल, त्यों-त्यों बढ़त नितांत ।।
-रत्नावलि दोहा ५६
कृपण
दाता नर अरु सूम में लखिए भेद इतेक । देत एक जियतेहिं हरषि, देत मरे पर एक ।
-ब्रज सतसई पृ० ४०
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