Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 530
________________ ४८८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वचन-विवेक क्रु द्धयन्तं न प्रतिक्र द्धयेदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत् ।। -मनुस्मृति ६/४८ क्रोधित व्यक्ति के प्रति भी क्रोध न करे। किसी से निन्दित होने पर भी उससे मधुर वाणी बोले । सात द्वारों (पाँच इन्द्रियाँ, मन और अन्तःकरण) से निकली असत्य वाणी न बोले । वाणी अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन । न मं देहमाश्रित्य वैवं कुर्वीत् केनचित् ।। -मनुस्मृति ६/४७ किसी के द्वारा कही गई कटु-कठोर वाणी को सहन करें। किसी का अपमान न करे और इस शरीर से किसी के साथ शत्रुता न करे । वाणी-विवेक दीनान्धपंगुबधिरा नोपहास्या कदाचन । -शुक्रनीति ३/११५ दीन, अन्धे, पंगु और बहरे मनुष्यों का कभी उपहास नहीं करना चाहिए। शील शीलं प्रधानं पुरुषे तदस्येह प्रणश्यति । न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः।। - महाभारत, उद्योगपर्व ३४/४८ मनुष्य में शील (सदाचार) की ही प्रधानता होती है। जिसका शील ही इस संसार में नष्ट हो जाता है उसको न जीवन से, न धन से और न बन्धुओं से कोई प्रयोजन है । शुद्धि आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्र वा स्मृतिः । स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विमोक्षः । -छान्दोग्य उपनिषद् ७/२६/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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