Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 516
________________ ४७४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मित्र सच्चाण सहस्साण वि माया एक्कावि णासेदि । - भगवती आराधना १ / ३ / ८ / ४ माया का एक आचरण ही हजारों सत्यों का नाश कर डालता है । लोभ देसकालम्भि | तं मित्तं कायव्वं जं किर वसणम्मि आलिहियभित्तिवाउल्लयं व न परं मुहं ठाइ ॥ मित्र उसे बनाना चाहिए जो भित्तिचित्र के समान किसी संकट और देश-काल में कभी भी विमुख न हो । मित्रता छोटे जीव (क्षुद्र प्राणियों को भी ) को समझो | इससे हे जीव ! तेरा कल्याण होगा । मेति भूसु कप्पए । मित्तेण तुल्लं च गणिज्ज खुद, जेण भविज्जा तुह जीव ! भद्द || Jain Education International - वज्जालग्ग ६/४ भी अपने मित्र समान सब जीवों के प्रति मित्रता का व्यवहार करना चाहिए । लोभी मानव लोभवश झूठ बोलता है । - उपदेश सप्ततिका ३ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दो मास कयं कज्जं कोडीए वि निट्ठियं । - उत्तराध्ययन ८ / १७ जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है और लाभ से लोभ बढ़ता जाता है । दो माशा सोने से पूरा होने वाला काम करोड़ों से भी पूरा नहीं हो सका - ( यह लोभ की विचित्रता है | ) लोभी - उत्तराध्ययन ६/२ For Personal & Private Use Only - प्रश्नव्याकरण सूत्र २/२ www.jainelibrary.org

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