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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४७१
निरभिमान
सयणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि ।
-आर्हत्प्रवचन ७/३७ निरभिमानी मानव संसार में स्वजन और सामान्यजन सभी को सदा प्रिय होता है और ज्ञान, यश, धन आदि का लाभ प्राप्त करता है तथा अपने कार्य को सिद्ध कर लेता है। परोपजीवी
किं पढिएणं बुद्धीए किं, व किं तस्स गुणसमूहेणं । जो पियरवि दत्तधणं, भुजइ अज्जणसमत्थो वि ।।
–पाइअकहासंगहो १६ उसके पढ़ने से क्या, बुद्धि से अथवा गुणसमूह से क्या (लाभ) ? जो कमाने में समर्थ होता हुआ भी पिता के द्वारा अजित धन का हो भोग करता है। पाप-पुण्य कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं ।
-समयसार १४५ अशुभकर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील (सदाचार) जानो। सुह परिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिय भण्णेसु ।
-समयसार १८१ — दूसरों के प्रति शुभ विचार पुण्य है और अशुभ विचार पाप है। पुरुषार्थ
आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुजदे। थणक्खीरादियाणं वा पडरुसेण विणा ण हि ।। ..
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड ८६० जो व्यक्ति आलस्ययुक्त होकर उद्यम उत्साह से रहित हो जाता है, वह किसी भी फल को प्राप्त नहीं कर सकता। पुरुषार्थ से ही सफलता (सिद्धि) प्राप्त होती है, जैसे माता, बालक को स्तन का दूध भी रुदन करने पर ही पिलाती है।
प्रेम
जा न चलइ ता अमयं चलियं पेम्म विसं विसेसेइ ।
-वज्जालग्ग ३६/७
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