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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४६६ दान, माँगा हुआ द्रव्य, बर्तन, रिश्वत, सुभाषित वचन-यदि शीघ्र ग्रहण न किये जायें तो पीछे दुर्लभ हो जाते हैं। दुष्कर
दाणं दरिदस्स पहुस्स खंती इच्छानिरोहो य सुहोइयस्स । तारुन्नए इन्दियनिग्गहो य चत्तारि एयाणि सु दुक्क राणि ।।
-गौतम कुलक १६ चार बातें बहुत दुष्कर हैं
(१) निर्धन का दान देना, (२) प्रभु (अधिकार संपन्न) का क्षमा करना (३) सुखी व्यक्ति का अपनी इच्छाओं को रोकना और (४) युवावस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना, उन्हें विषयों में न जाने देना। दुष्ट आचार
जहा सुणी पूईकण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जइ ।।
-उत्तराध्ययन १/७ जिस प्रकार सड़े कानों वाली कुतिया जहाँ भी जाती है, सर्वत्र निकाल दी जाती है, उसी प्रकार दुःशील, उद्दण्ड और वाचाल व्यक्ति भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है । देने का विवेक जो जस्स उपाआग्गे, सो तस्स तहिं तु दायव्वो।
-निशीथभाष्य ५२६१ जो जिसके योग्य हो, उसे वही देना चाहिए । धर्म
धम्मोमंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥
-दशवकालिक १/१ धर्म उत्कृष्ट मंगल है, और अहिंसा, संयम, तप उसका स्वरूप है । इस धर्म को जो हृदय में सदा धारण करता है, देवगण भी उसे नमस्कार करते हैं।
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