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४६२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
कालेण कालं विहरेज्ज रट्ठे, बलाबलं जाणिय अप्पणो
- उत्तराध्ययन २१/१४
अपने बलाबल को जानकर, समय के अनुसार राष्ट्र ( राज्य ) में विहरण करो ।
से जाणमजाणं वा कट्टु आहम्मियं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥
- दशवैकालिक ८ / ३१
या अजान में कोई अधर्म ( अनैतिक) कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए और फिर दूसरी बार वह कार्य नहीं करना चाहिए |
मा मा मासु जोए मा परिहव सज्जणें करेसु दयं । मा होह कोवणा भो खलेसु मित्तिं च मा कुणह ॥
- कुवलयमाला, अनुच्छेद ८५ जीवों को मारो मत, उन पर दया करो, सज्जनों को अपमानित मत करो, क्रोधी मत बनो, दुष्टों से मित्रता मत करो ।
थेवं व थेवं धम्मं करेह जइ ता बहुँ न सक्के ह | पेच्छह महानईयो बिन्दुहिं समुद्दभूयाओ ||
- अर्हत्प्रवचन १९/१४ यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। बूंद-बूंद से समुद्र बन जाने वाली महानदियों को देखो । उन्मार्गी
उम्मग्गठियो इक्कोऽवि, नासए भब्वसत्त संघाए । तं मग्गमणुसरते, जह कुतारो नरो होइ ।
- गच्छाचार प्रकीर्णक ३० जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता, वह जैसे स्वयं डूबता है और अपने साथियों को भी ले डूबता है उसी प्रकार उल्टे मार्ग पर चलने वाला एक मनुष्य भी अपने साथ अन्य कइयों को भी संकट में डाल देता है ।
करुणा
करुणाए जीवसहावस्स
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करुणा जीव का स्वभाव है ।
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- धवला १३/५
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