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अधिकार - कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४१६
(while collar) अपराधियों के लिए क्या कहा जाय ? इनके पास तो सभी साधन हैं, धन है, सामाजिक परिस्थितयां अनुकूल हैं, कार-बंगला सभी कुछ हैं फिर भी वे कर-चोरी, स्मगलिंग, अनुचित कमीशन लेना आदि अपराध करते हैं ।
दमित मनोग्रन्थियाँ भी अपराधों का एक कारण हो सकती हैं, किन्तु सभी अपराधी इसी वर्ग के नहीं होते ।
इतना होने पर भी सुधारवादी सिद्धान्त शेष दोनों सिद्धान्तों से अधिक श्रेष्ठ है । इसी सिद्धान्त के प्रभाव से आधुनिक युग में प्राणदण्ड (Capital Punishment) को उपयुक्त नहीं माना जाता ।
यद्यपि प्राणदण्ड के पक्ष में अनेक तर्क दिये जाते हैं - सिसली. एम. क्रे'वन (Cicely M. Craven ) के अनुसार प्राणदण्ड का प्रयोजन भय दिखा - कर अपराधों को रोकना है । वह इसे प्रतिरोधक भी मानता है । कुछ विद्वानों ने इसे कम खर्चीला तथा कम कष्टदायक भी बताया है । विक्टर ह्य ूगो ( Victor Hugo ) की धारणा है कि मृत्युदण्ड समाप्त होते ही समाज का नाश हो जायेगा और गैरोफैलो ( Garofalo) तो प्राणदण्ड को समाज की भलाई के लिए नैतिक युद्ध के रूप में देखता है ।
यह सब तर्क अपनी जगह हैं, लेकिन प्राणदण्ड का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अपराधी के सुधार का कोई अवसर ही नहीं है ।
यद्यपि जैन साहित्य में अनेक प्रकार के अपराधियों का वर्णन आता है किन्तु जैन दण्डनीति ने सदा ही सुधारात्मक सिद्धान्त को उचित माना है ।
जैन नीति का प्रारम्भ ही हाकार, माकार और धिक्कार नीति से हुआ जिसमें व्यक्ति को किसी प्रकार का दण्ड न देकर सिर्फ उसके सुधार की भावना निहित है ।
सुधार में ही जैन नीति का विश्वास है । इसका कारण यह है कि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक भव्य आत्मा, चाहे वर्तमान में कितनी भी पतित दशा में क्यों न हो, वह उन्नति करेगी और अपने अन्तिम लक्ष्यमोक्ष को प्राप्त करेगी । और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसकी वृत्तिप्रवृत्ति आवेग संवेग में सुधार आना, मोक्षलक्ष्यी होना अनिवार्य है ।
जैन आचार ग्रन्थों में 'निशीथ सूत्र' एक दण्डशास्त्र है जिसे जैन शब्दावली में 'प्रायश्चित्त' कहा गया है। किस प्रकार की भूल या मर्यादा विरुद्ध आचरण होने पर किस प्रकार का दण्ड - प्रायश्चित्त देना - यही इस सूत्र का मुख्य विषय है । किन्तु इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह
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