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४२८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन है । यह सार्वभौम, सामान्य, ईश्वरीय नियम नहीं है। जब कोई व्यक्ति साधना से व्यक्तिगत मानस का अतिक्रम करके अति-मानस (Supermind) के स्तर की स्थिति को प्राप्त करता है, तब ईश्वरीय, सार्वभौम, निरपेक्ष नियम (absolute divine law) से स्वतः चालित होता है। वह यथार्थ ईश्वरीय निरपेक्ष स्वातन्त्र्य (absolute freedom) में भाग लेता है। इस तात्विक दृष्टि से मनुष्य की नीति सापेक्ष है ।।
श्री अरविन्द घोष के उक्त विचारों से यह प्रतिफलित होता है कि मानव-मन द्वारा निर्धारित जो नीति और नैतिक नियम हैं वे सापेक्ष हैं । मन से उनका अभिप्राय संवेगात्मकता और बुद्धिपरक आत्मा है तथा जब
आत्मा इस स्तर से ऊपर उठकर ज्ञानात्मा बन जाता है तब उसके द्वारा निर्धारित नीति निरपेक्ष होती है ।
जैन नीति में भी इस विचारधारा को स्थान मिला है। वहाँ छठे गुणस्थान तक जितनी भी कायिक वाचिक प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे अधिकांश सापेक्ष हैं और मानसिक क्रियाएँ-संकल्प, ध्यान-जप आदि निरपेक्ष है।
नीति, वास्तव में निरपेक्ष-सापेक्षात्मक है । जैन नीति की निरपेक्षता में सापेक्षता समाई हुई है तो सापेक्षता में निरपेक्षता अनुस्यूत है ।
पुनश्च, निरपेक्षता की कोटियाँ अथवा श्रेणियां नहीं है, वह सदा एकरस है, absolute है; जबकि सापेक्षता की अनेक श्रेणियाँ हैं। सापेक्षता का हार्द है-बुराई को सर्वदा त्यागना और यदि परिस्थितियों की जटिलता के कारण ऐसा न हो सके तो बड़ी बुराई को छोड़ देना और छोटी बुराई को कुछ समय के लिए ग्रहण करके फिर उसे भी त्यागकर शुभ की और प्रवृत्त होना और नैतिक शुभ (moral good) से परम शुभ की प्राप्ति (utmost good) हेतु गतिशील रहना।
जैन नीति नैतिक सापेक्षता के प्रत्यय में उदार है। इसके अनुसार सैद्धान्तिक पक्ष, निरपेक्ष नैतिकता है और आचरण पक्ष सापेक्ष नैतिकता।
१. Tne Synthesis of Yoga, ch. VII, 1953 २. देखिये; इस पुस्तक का अध्याय-"आध्यात्मिक उत्कर्ष का नीति-मनोविज्ञान ।
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