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४५० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अनुशासन
अप्पणी य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं ।
- सूत्रकृतांग १/१/२/१७ जो व्यक्ति अपनी आत्मा को (स्वयं अपने आपको ) अनुशासन में नहीं रख सकता, वह दूसरों को अनुशासित रखने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।
अणुससिओ न कुप्पेज्जा
बड़ों द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करें ।
अतिरेगं अहिगरणं
अपरिग्रह
- ओघनियुक्ति ७४१ आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तु क्लेशप्रद एवं दोषरूप हो जाती है ।
अज्झत्थ विसोहीए, उवगरणं बाहिरं परिहरंतो । अपरिग्गही त्ति भणिओ, जिणेहिं तिलोक्कदरिसीहिं ॥ — ओघनिर्युक्ति ७४५ जो साधक बाह्य उपकरणों को आत्म-विशुद्धि के लिए ग्रहण करता है, त्रिलोकदर्शी (सर्वज्ञ) जिनेश्वर देवों ने उसे अपरिग्रही कहा है । अत्थो मूलं अणत्थाणं
- मरण समाधि ६०३
अर्थं तो अनर्थ का मूल है ।
- उत्तराध्ययन १/
गंथोऽथ व मओ मुच्छा मुच्छाहि निच्छयओ |
- विशेषावश्यक भाष्य २५७३ विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी । यदि मूर्च्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्च्छा नहीं है तो परिग्रह भी नहीं है । वास्तविक दृष्टि से मूर्च्छा ( अपनत्व भाव या अधिकार भाव ) ही परिग्रह है । गाहेण अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल अत्ये
—सूत्रपाहुड २७
जिस प्रकार सागर (नदी) के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने योग्य ही जल ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार ग्राह्य वस्तु में से भी अपनी आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करना चाहिए ।
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