Book Title: Jain Nitishastra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 495
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४५३ - प्रश्नव्याकरण २/२ आकस्मिक भय से, व्याधि से, रोग से, वृद्धावस्था से और यहाँ तक कि मृत्यु से भी भयभीत नहीं होना चाहिए । जेण कुणइ अवराहे, सो णिस्संकोदु जणवए भमदि । न भाइयव्वं, भयस्स वा वाहिस्स वा, रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा । - समयसार ३०२ जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता वह निःशंक होकर जनपद में घूमता है अर्थात् निरपराध व्यक्ति निर्भय होता है । दाणाणं चेव अभयदानं - प्रश्नव्याकरण २/२ अभयदान सब दानों में श्रेष्ठ है । निब्भरण गतिव्वं अविनीत तुम निर्भय होकर विचरण करो । - निशीथ चूणिभाष्य २७३ पुरसम्म दुब्विणी, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे | न वि दिज्जति आभरण, पसियत्तिकण्ण हत्थस्स || Jain Education International - निशीथ भाष्य ६२२१ दुर्विनीत को विनय विधान ( सदाचार) की शिक्षा नहीं देनी चाहिए जिसके कान और हाथ कटे हों उसे आभूषण ( कर्णभूषण और कंकण ) नहीं देने चाहिए । थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विजयं न सिक्खे | सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥ - दशवैकालिक ६/१/१ अभिमान, क्रोध, कपट तथा प्रमाद के कारण जो शिक्षार्थी गुरूअध्यापकों का आदर नहीं करता, शिक्षकों के समीप विनय की शिक्षा ग्रहण नहीं करता, उसका अविनयपूर्ण आचार उसी प्रकार उसको नष्ट करने वाला होता है, जिस प्रकार बाँस का फल बाँस को ही नष्ट करने वाला बनता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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