________________
४२४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(३) यह कर्म के आन्तरिक स्वरूप की उपेक्षा करती है।।
(४) यह समाज की विभिन्नता और विविधता पर तो दृष्टि केन्द्रित करती है किन्तु उसमें अनुस्यूत एकता की उपेक्षा कर देती है।
(५) नैतिक सापेक्षता का अनुसरण करने से नैतिक मानव की एकरूपता और नैतिक नियमों की सार्वभौमता समाप्त हो जाती है, अतः नैतिक निर्णयों में बाधा उपस्थित होती है ।
(६) यह बाह्य परिस्थिति पर ही दृष्टि रखती है, अतः संकल्पस्वातन्त्र्य के लिए बाधक है, आत्म-स्वातंत्र्य भी समाप्त हो जाता है।
७) इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि नैतिक नियमों में शिथिलता आ जाती है। व्यक्ति सूविधाप्रिय तो है ही, वह परिस्थिति के अनुसार अपने नैतिक नियमों को भी ढाल लेता है।
इस प्रकार नैतिक निरपेक्षता में प्रमुख दोष कठोरता का है तो नैतिक सापेक्षता में सबसे बड़ा दोष शिथिलता का है। इस प्रकार पृथकपृथक रूप से दोनों ही दोषपूर्ण हैं, एकांगी हैं।
जनदृष्टि-जैनदृष्टि इस एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती, वह नैतिक निरपेक्षता और सापेक्षता को उचित महत्व देती है। इसके लिए जैन दर्शन में निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि-दो शब्द दिये गये हैं। नीति की अपेक्षा निश्चय दृष्टि का अभिप्राय है नैतिक निरपेक्षता और व्यवहार दृष्टि है नैतिक सापेक्षता ।
निरपेक्षता स्वगत (Subjective) है और सापेक्षता विषयीगत अथवा वस्तुगत ( bjective)। व्यक्ति स्वयं के विषय में, स्वयं अपने कार्यों, मनोभावों संकल्पों के विषय में बाह्य परिस्थितियों से निरपेक्ष होकर निर्णय ले सकता है; किन्तु अन्य व्यक्तियों के कार्यों के विषय में निर्णय लेने के लिए उसे बाह्य परिस्थितियों की अपेक्षा आवश्यक है, क्योंकि दूसरे व्यक्ति के मनोभावों का जानना उसके लिए शक्य नहीं है।
यह कहा जा सकता है कि सत्य बोलना शाश्वत नीति है, अपरिवर्तनीय है, कहा भी यह जाता है कि सदा सत्य बोलना चाहिए। सत्य बोलना निरपेक्ष नीति है, इसका कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।
लेकिन इसके साथ-साथ यह भी यथार्थ है कि नग्न सत्य बहुत ही कटु और भद्दा होता है। राजा हरिश्चन्द्र द्वारा पत्नी से आधा कफन माँगना, सत्यव्रत पालन का अभद्ररूप प्रदर्शित करना ही है। इसी प्रकार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org