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३६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
माना है । वे अत्याचारी शासक का विरोध भी अहिंसात्मक ढंग से करना उचित मानते थे । लेकिन उनकी अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं थी ।
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उनके विचार से राजनीतिक और आर्थिक नियम नैतिक नियमों द्वारा नियमित संचालित और यहाँ तक कि इनके अन्तर्गत ही होने चाहिए । यदि राजनीतिक और आर्थिक नियम नैतिक नियमों के विरोधी हों तो उनकी दृष्टि में उनका विरोध करना उचित है । अपने इसी नैतिक निर्णय के अनुसार उन्होंने दांडी यात्रा करके नमक कानून तोड़ा था तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध किया था ।
मानवता गाँधी जी की नीति का अन्य प्रमुख प्रत्यय रहा । मानवता पद-दलित न हो, मानवीय वृत्तियों का सर्वतोमुखी विकास हो, इसीलिए वे अनैतिक शासन के विरोधी रहे ऐसी सरकार को वे कर देना भी अनुचित मानते थे । इसीलिए उन्होंने चौरी चौरा के किसानों को कर न देने की प्रेरणा दी । आर्थिक क्षेत्र में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जहां तक मनुष्यों (मानव श्रम) काम चल सके वहाँ तक मशीनों का प्रयोग उचित नहीं है । इसके आधार में मानव को शोषण, भुखमरी, बेरोजगारी से मुक्त रखने की सदिच्छा थी । क्योंकि बेरोजगारी आदि के कारण अनैतिक प्रवृत्तियों की सम्भावना बढ़ जाती है ।
न्याय के क्षेत्र में उन्होंने ग्राम पंचायतों का समर्थन किया तथा धन संरक्षण के क्षेत्र में ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का । ग्राम पंचायतों से व्यवस्था सुचारु व न्याय सुलभ हो जाएगा और ट्रस्टीशिप सिद्धान्त से धन-स्वामियों का धन के प्रति ममत्व कम होगा, वे धन को समाज की धरोहर समझेंगे और इसलिए संचय भी कम होगा, परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होगी ।
इन सभी नियमों और सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि गाँधीजी की सम्पूर्ण नीति का आधार अहिंसा है ।
उपसंहार
इस सम्पूर्ण विवेचन और विभिन्न नैतिक वादों तथा जैन नीति के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि इन सभी वादों के बीज जैन नीति में निहित हैं । यह अवश्य है कि किसी वाद में ये बीज अधिक प्रत्यक्ष हैं तो किसी में कम |
सारांशतः कहा जा सकता है कि जैन नीति अपने आप में पूर्ण है, सक्षम है और अपनी विशुद्धता, विशालता और विराट स्वरूप के कारण अन्य सभी वादो में इसका प्रभाव झलकता है ।
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