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नैतिक उत्कर्ष | ३०३
तथ्य यह है कि जब तक मनुष्य अपना स्वयं का तटस्थतापूर्वक आत्मालोचन नहीं करेगा तब तक वह अपने दोषों और कमजोरियों, अशुभाचरण को जान भी नहीं सकेगा, ऐसी स्थिति में वह नैतिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा।
पौषधोपवास, वस्तुतः आत्म-पवित्रता की, आत्मा को दोषों से मुक्त करने की साधना है; और नीति भी तो यही है, वह भी व्यक्ति को बुराइयों (Evils) से बचने तथा अच्छाइयों (Good) की ओर बढ़ने की प्रगति करने की प्रेरणा देती है और साथ ही इस प्रगति का मार्ग भी सुझाती है ।
इस दृष्टिकोण से पौषधोपवास व्रत आत्मिक शुद्धि का साधन तो है ही साथ ही साथ शुभत्व को-नैतिक आचरण को बुद्धिंगत भी करता है । शुभत्व से शुद्धत्व--शुभ से परम शुभ की ओर प्रयाण का मार्ग प्रशस्त करता है।
अतिथि संविभाग व्रत इस व्रत का धार्मिक दृष्टि से महत्व तो है ही; किन्तु नैतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। इस व्रत में दान, सेवा, सहयोग, परोपकार, विश्वबन्धुत्व आदि सभी शुभ भावों की उर्मियां तरंगायित होती हैं। उस के मानस में स्वोपकार के साथ परोपकार की भव्य भावना भी अंगड़ाई लेने लगती है। नीति के अनुसार यह सभी शुभ प्रत्यय हैं और साथ ही संविभाग-संवितरण का समाजोपयोगी व्यावहारिक एवं प्रक्रियात्मक रूप भी हैं।
दान का अर्थ ही संविभाग है। अपनी न्यायोपार्जित आय में से अतिथि को उसके योग्य उचित आहार आदि देना, उसकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना, अपनी संपत्ति का उचित और योग्य क्षेत्र में वपन करना है।
दान के दो भेद हैं-(१) श्रद्धादान (२) अनुकंपादान ।
त्यागी व्रती श्रमण-श्रमणियों को दान देना, श्रद्धादान है तथा समाज के अन्य जरूरतमन्द मानवों को देना, अनुकंपादान है।
___ अनुकंपादान की सीमा बहुत विस्तृत है-पशुओं को चारा तथा पक्षियों को दाना डालना भी अनुकंपादान है।
दान (charity) को नीति में शुभ प्रत्यय कहा है। यह व्यक्ति में उदात्त भावनाएँ भरता है और लेने वाले के लिए भी उपयोगी होता है ।
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