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जैन नीति और नैतिक वाद | ३८७
आमत्पर्णतावाद आत्म-पूर्णतावाद (Eudaemonism) वह नैतिक सिद्धान्त है जो आत्म-कल्याण को ही परम श्रेय और परम शुभ मानता है । इसकी व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द यूडीयामोनिया (Eud aemonia) से हुई है जिसका अर्थ होता है-कल्याण । इसे संक्षेप में पूर्णतावाद (Perfectionism) भी कह दिया जाता है।
पूर्णतावाद अथवा आत्मपूर्णतावाद के बीज प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू के विचारों में मिलते हैं । अरस्तू ने अपनी पुस्तक निकोमकिअन ईथिक्स में मनुष्य मात्र का लक्ष्य यूडीयामोनिया (Eudaemonia) बताया है, जिसके अन्तर्गत तीन बातें आती हैं-(१) क्रियाशीलता, (२) निःश्रेयस और (३) आनन्द या सुख ।
इसी वाद के दर्शन ईसामसीह के इन शब्दों में होते हैं"तुम वैसे ही पूर्ण हो जाओ जैसे स्वर्ग में तुम्हारा पिता है ।"2
आधुनिक युग में पूर्णतावाद का समर्थन लिबनित्स, स्पिनोजा आदि ने किया किन्तु हेगेल ने 'पूर्ण पुरुष या व्यक्ति बनो'-यह मुख्य शिक्षा देकर इस वाद को नवीन आधार पर प्रतिष्ठित किया।
वस्तुतः पूर्णतावाद में सुखवाद और बुद्धिपरकतावाद का समन्वय किया गया है । सुखवाद का लक्ष्य इन्द्रिय-सुख है और बुद्धिपरकतावाद आत्मा को शुद्ध बुद्धिमय मानता है । इसमें भावनाओं को कोई स्थान नहीं दिया गया जबकि सूखवाद में भावनाओं का प्रमुख स्थान है। आत्मपूर्णतावाद वासना और बुद्धि-दोनों को ही आत्मा का अनिवार्य अंग स्वीकार करके दोनों को ही उचित स्थान देना चाहता है ।
किन्तु यह वासनाओं को अनियंत्रित नहीं छोड़ना चाहता । यह वासनाओं के दमन अथवा निष्कासन को भी उचित नहीं मानता । यह उनका मार्गान्तरीकरण शुभ और शुद्ध की ओर करना चाहता है।
पूर्णतावाद की सबसे प्रमुख विशेषता स्वार्थ और परमार्थ का उचित समायोजन है । यह आत्मा के दो पक्ष मानता है--१. व्यक्तिगत आत्मा
५ संगमलाल पाण्डेय : नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण प० २७० २ संगमलाल पाण्डेय : नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ० २७१ ३ व्यक्तिगत आत्मा की तुलना जैनदर्शन में वणित कषाय आत्मा से की जा सकती है, क्योंकि व्यक्तिगत आत्मा भी वासनात्मा-कषायात्मा ही है । -देखिए - पच्चीस बोल का स्तोक, बोल १५वा और स्थानांग, स्थान ८
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