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आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३६६
कभी वह सत्य सिद्धान्त पर यकीन करने को उत्सुक होता है तो दूसरे ही क्षण मिथ्या विचार उसके मन-मस्तिष्क को आच्छादित कर देते हैं । कभी सोचता है - जिनेन्द्र भगवान ने लोक को अकृत्रिम बताया है, यह सत्य है तो कुछ ही क्षण बाद उसका विचार पलट जाता है कि अन्य सभी धर्मावलम्बी लोक को ईश्वरकृत कहते हैं तो इतने लोग गलत कैसे हो सकते है ?
इस प्रकार उसका विश्वास स्थिर नहीं होता, भटकता ही रहता है, यह संशयात्मक स्थिति है ।
नैतिक दृष्टि से भी यह संशयात्मक स्थिति पतन की ही सूचक है संदेहशील व्यक्ति जब शुभ-अशुभ आदि का निर्णय ही नहीं कर सकता तो उससे नैतिक शुभाचरण अथवा कर्तव्य पालन की आशा करना ही व्यर्थ
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सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (नैतिक भूमिका पर पदन्यास )
आध्यात्मिक एवं नैतिक, प्रत्येक दृष्टि से यह गुणस्थान विकास का स्थान है । इस स्थान का स्पर्श करते ही व्यक्ति की गलत धारणाएं, मिथ्या मान्यताएँ विनष्ट हो जाती हैं और उसमें सद्विवेक जागृत हो जाता है, वह सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानने / समझने लगता है । उसकी श्रद्धा और प्रतीति दिवाकर के प्रकाश के समान चमक उठती है । मिथ्यात्व तथा अज्ञान का निविड़ तिमिर विलीन हो जाता है ।
दूसरे और तीसरे गुणस्थान इस गुणस्थान की अपेक्षा अपकान्तिके, पतन के स्थान हैं । वास्तविक दृष्टि से यही गुणस्थान उन्नति और विकास IT गुणस्थान है । यह विकास ऐसा ही है, जैसे घने मेघ पटलों को चीरकर सूर्य का प्रकाश जगमगा उठता है । आत्मा भी अनादिकाल के मिथ्यात्व और अज्ञानान्धकार को विनष्ट कर इस गुणस्थान को प्राप्त करता है; अनैतिक से नैतिक बन जाता है ।
इस गुणस्थान की प्राप्ति सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान से होती है । यानी आत्मा प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व से सीधी छलाँग इस स्थान पर लगाता है, बीच के दोनों (दूसरा और तीसरा ) गुणस्थानों को छोड़ जाता है; ठीक ऐसे ही जैसे कोई व्यक्ति सबसे नीची - पहली सीढ़ी से उछल कर चौथी सीढ़ी पर कदम रख दे ।
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