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३७० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
इस गुणस्थान अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति शास्त्रीय दृष्टिकोण से मिथ्यात्व मोह के विलय से होती है । यह विलय दो प्रकार से होता है-१. क्षय से और २ उपशम से।
मनोवैज्ञानिक भाषा में कहें तो कह सकते हैं-१. शोधन से और २. दमन से । शोधन का अभिप्राय है क्षय और दमन का अभिप्राय उपशम है ।
जिस प्रकार दमित वृत्ति और भी प्रबल वेग से उठ खड़ी होती है और व्यक्ति को पतित कर देती है उसी प्रकार उपशम से प्राप्त सम्यक्त्व भी प्राप्त होने के ४८ मिनट के अन्दर ही अन्दर छूट जाता है और कषायोंसंवेगों के प्रबल प्रभाव से पतित हो जाता है। उस पतन के समय सास्वादन गुणस्थान की स्थिति बनती है और मिथ्यात्व का स्पर्श होते ही मिथ्यात्वी बन जाता है।
शोधन की स्थिति में आत्मा का पतन नहीं होता, वह सम्यक्त्वी ही बना रहता है। लेकिन शोधन अथवा क्षय के साथ मार्गान्तरीकरण की स्थिति बन जाय तो शास्त्रीय भाषा में क्षयोपशम कहा जाता है ।
क्षयोपशम दर्शनमोह का तो होता ही है, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का भी होता है। ऐसा आत्मा भी अपने सत्य दृष्टिकोण पर स्थिर रहता है। यह सम्यक्त्व काफी समय तक (शास्त्रीय भाषा में ६६ सागर तक) रह सकता है।
नैतिक दृष्टि से यह गुणस्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस स्थान की प्राप्ति होने पर ही आत्मा में अध्यात्म-संपृक्त नैतिकता का विकास होता है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में वह जो भी नैतिक कार्य करता है, वे सब के सब संसार-सुख प्राप्ति की अभिलाषा से सिंचित रहते हैं।
इस प्रकार उसकी नैतिकता के पीछे भौतिक भोगेषणा रहती है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा की प्रवृत्ति आत्मसुखलक्ष्यी हो जाती है, वह अपना तथा अन्य आत्माओं के कल्याण के विषय में चिन्तन करता है, और इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है।
यह संभव है कि ऐसी आत्मा नैतिकता का आचरण न कर सके; किन्तु उसकी अन्तर्वृत्ति, भावना नैतिकता का पालन करने की ओर ही हो जाती है, उसके मन-मस्तिष्क में आध्यात्मिक-नैतिकता की तड़प जाग उठती है, इच्छा यही रहती है कि नैतिक आचरण ही किया जाय ।
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