________________
३८० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
बैन्थम ने कहा है- प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुःख नामक दो सर्वशक्तिमान स्वामियों के अधीन रखा है । उनको ही यह संकेत करना है कि हमें क्या करना चाहिए और हम क्या करेंगे ?”1
भी
सिरैनिक्स (Cyrenaics) भी इसी मत का समर्थन करता है । मिल भी बेंथम का समर्थक है और उसने ज्ञान, सौन्दर्य तथा धर्म को ' के साधन रूप में स्वीकार किया है ।
सुख
जैन दृष्टि से भी प्राणि मात्र को सुखवादी माना जा सकता है । आचारांग, दशवैकालिक टीका' से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है ।
यही तथ्य महाभारत' में भी स्वीकार किया गया है । छान्दोग्य उपनिषद् का मन्तव्य है कि मानव के कर्म करने का हेतु सुख है | चाणक्य तो मानव को स्वार्थी मानता ही है ।
किन्तु सभी भारतीय दर्शन व्यक्तिगत सुख से अधिक सार्वजनिक सुख पर बल देते हैं ।"
इतने पर भी जैन नैतिकता की विशिष्टता यह है कि यह व्यक्तिगत सुख की अवधारणा तो मान्य करती है किन्तु साथ ही स्पष्ट आघोष करती है कि तुम्हारे सुख के लिए दूसरों के सुख का हनन न हो, उन्हें दुःख न हो । दूसरों को दुःख देकर अपने सुख के लिए जैन नैतिकता में कोई स्थान नहीं है । वहाँ तो अपने समान ही प्राणी मात्र को समझने की मान्यता हैं | और कहा है - जिसे तुम कष्ट व पीड़ा देना चाहते हो, वह कोई दूसरा नहीं
१. Bentham, J : Principles and Morals of Legislation. chap, 1. —Quoted by : डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० १०७ ( पाद-टिप्पण)
२. आचारांग १/२/३/८१ - सव्वे पाणा सुहसाया दुक्खपडिकूला |
३. दशवेकालिक टीका पृ० ४६
४. दुखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् ... - महाभारत, शांतिपर्व, १३६ / ६१
५. छान्दोग्य उपनिषद् ७।२२।१
६. देखिए - यजुर्वेद शान्तिपाठ में प्रस्तुत की गई सर्व सुख भावना
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥
७. अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाए ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- दशवैकालिक १०/५
www.jainelibrary.org