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नैतिक चरम | ३५५ अन्य जो भी कुत्सित प्रवृत्तियां हैं-हिंसा की, द्वष की, ईर्ष्या की, चाड़ी-चुगली और निन्दा की-उन सबके प्रति लोगों के मानस में अरुचि जगा दे । उन्हें सदाचारपूर्ण सात्विक और धार्मिक जीवन जीने की राह दिखाए; सद्धर्म का रहस्य समझाये ।
वस्तुतः साधु-संस्था और विशेषतः जैन श्रमण जंगम तीर्थ हैं । वे गांव-गांव, नगर-नगर पैदल परिभ्रमण करके लोगों में धर्म-जागृति कैलाते हैं, अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं ।
यथार्थ यह है कि श्रमण अपने स्वीकृत महाव्रतों तथा अन्य सभो उत्तरगणों का परिपालन करते हुए लोक कल्याण हितार्थ समाज को भी शुभ प्रेरणा देता है, और स्वयं नैतिक चरम की स्थिति पर पहँचता है जहां नीति और धर्म का अभेद स्थापित हो जाता है । इस प्रकार नीति को धर्ममय बनाकर तिनाणं तारयाणं के रूप में स्वयं अपना भी कल्याण करता है
और अन्य लोगों का भी। और अन्त में इस विरुद को धारण करता हैबुद्धाणं बोहियाणं, मुत्ताणं मोयगाणं ।
स्वयं अपनी आत्मा को प्रबुद्ध और दूसरों की आत्मा को भी प्रबोध देकर स्वयं भी मुक्त होता है और दूसरों की मुक्ति में भी प्रबल सहायक होता है।
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