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३२६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
लेकिन श्रमण, चूँकि अन्तरंग परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है, अतः उसके आवश्यक उपकरण बन्धनकारी नहीं होते, अपितु डा० कमलचन्द्र सौगानी के शब्दों में- " जिस प्रकार शुद्ध भावों के अभाव में शुभभाव श्रमण-जीवन में चमक-दमक उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार बाह्य उपकरण भी । और उत्तराध्ययन सूत्र में तो बाह्य उपकरणों का प्रयोजन 'जनता की प्रतीति' 'संयम यात्रा का निर्वाह' और " मैं साधु हूँ इस प्रकार का बोध" बताया है 12
इस दृष्टि से श्रमण १४ प्रकार के उपकरण रख सकता है ।
नीति की दृष्टि से श्रमण के लिए अन्तरंग परिग्रह का त्याग अधिक महत्वपूर्ण है ।
(६-१०) पाँच इन्द्रियनिग्रह
ज्ञान और अनुभव प्राप्ति के साधन इन्द्रिय कहे जाते हैं । ये पाँच हैं - (१) स्पर्शेन्द्रिय -- इसके द्वारा स्पर्श संबन्धी ज्ञान प्राप्त होता है । (२) रसनेन्द्रिय द्वारा विभिन्न प्रकार के रसों का आस्वाद लिया जाता है । ( ३ ) घ्राणेन्द्रिथ सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान कराती है । (४) चक्षुइन्द्रिय के माध्यम से विभिन्न प्रकार के सुन्दर - असुन्दर रूपों का ज्ञान होता है । ( ५ ) श्रोत्रेन्द्रिय प्रिय-अप्रिय स्वरों-शब्दों को ग्रहण करती है ।
?. Just as the Shubhabhavas in the absence of Shuddhabhavas adorn the life of the saint, so do these paraphernalia without any contradiction.
— Dr. K. C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p. 123
२. उत्तराध्ययन सूत्र २३, ३२
३. प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवर द्वार, अध्ययन ५, के अनुसार मुनि के १४ उपकरण – (१) पात्र (२) पात्र बन्ध ( ३ ) पात्र स्थापना ( ४ ) पात्र के सरिका ( ५ ) पटल (६) रजस्त्राण (७) गोच्छक, ( ८-१० ) विभिन्न नाप की ३ चादरें ( ११ ) रजोहरण (१२) मुखवस्त्रिका (१३) मात्रक और (१४) चोल पट्टक ।
(ख) मूलाचार (१४) के अनुसार मुनि (दिगम्बर) के परिग्रह का वर्गीकरण(१) ज्ञानोपधि ( स्वाध्याय के लिए शास्त्र आदि) (२) संयमोपधि ( मयूरपिच्छी) (३) शौचोपधि ( शरीर शुद्धि के हेतु जल - पात्र - कमंडलु )
Quoted by, Dr. K. C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism,
P. 123
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