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३४० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन करना और योग्य दण्ड स्वीकार करना। श्रमण-जीवन में अपने दोषों की आलोचना गुरु के समक्ष की जाती है और उनसे योग्य दण्ड-प्रायश्चित लिया जाता है ।
लेकिन नैतिकता के लिए गुरु के समक्ष आलोचना करना और उनसे दण्ड लेना अनिवार्य नहीं है। व्यक्ति (श्रमण-श्रावक) स्वयं ही अपने परिणामों (मानसिक भावों), कहे हुए शब्दों और कायिक चेष्टाओं पर गहरी निरीक्षण दृष्टि रखता है, स्वयं ही तुरन्त अनुताप प्रगट करता है और जिस व्यक्ति के प्रति कटु शब्द निकल गये हों, अथवा अन्य कोई अपराध हुआ हो, उससे निःसंकोच क्षमा माँग लेता है ।
आनन्द श्रावक ने जब अपने अवधिज्ञान के विषय में गौतम गणधर को बताया तो उन्हें विश्वास न हुआ, वे समझे आनन्द झूठ बोल रहा है। लेकिन जब भगवान महावीर से उन्हें यह मालूम हआ कि आनन्द का कथन सत्य है तो वे अपने उच्च पद के व्यामोह में न पड़े और तुरन्त जाकर आनन्द से निस्संकोच सरल हृदय से क्षमा माँगी । यह गौतम गणधर की चरम कोटि की नैतिकता थी।
(८) विनय-विनय तप भी है, लोकोपचार अथवा शिष्टाचार भी है, सदाचार भी है और धम का मूल भी है, और है यह मोक्ष फलप्रदाता । इससे अहंकार का विसर्जन होता है और हृदय में कोमल भावनाओं का संचार होता है, अंतरंग में मधुर वृत्तियां सजग हो उठती हैं।
विनय उच्च कोटि की नैतिकता है, आध्यात्मिक दृष्टि से भी और सांसारिक दृष्टि से भी। विनयपूर्ण व्यवहार सदैव और सर्वत्र प्रशंसित होता है, विनयी व्यक्ति सभी जगह सम्मानित और समाहत होता है।
नीतिशास्त्र में अभिमान की गणना अनैतिक प्रत्ययों में की गई है तो अभिमान का निरसन करने वाले विनय को स्वयंमेव ही नेतिक प्रत्ययों में स्थान प्राप्त हो जाता है। विनयी व्यक्ति अपने इस गुण के कारण नीतिवान बन जाता है।
१ (क) देवेन्द्र मुनि शास्त्री : भगवान महावीर एक अनुशीलन
(ख) मुनिश्री कन्हैयालालजी कमल : धर्मकथानुयोग। २ (क) तत्वार्थ सूत्र ६, २० (ख) भगवती श. २५, उ. ७, सू. १७ ३ (क) तत्वार्थ सूत्र ६, २३ (ख) औपपातिक सूत्र, तप वर्णन ४ दशवकालिक ६, २, २-धम्मस्स विणओ मूलं
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