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८२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इसी बात को दृष्टि में रखकर आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
अंगाणं किं सारो ? आयारो। समस्त ज्ञान का सार क्या है ? आचरण । मनुस्मृति ने भी आचार को प्रथम धर्म बताया है
___ आचारः प्रथमो धर्मः। इन सभी बातों का अभिप्राय एक ही है कि साध्य और साधन अथवा ज्ञान और क्रिया-दोनों का समन्वय ही श्रेय प्राप्ति में सहायक बनता है, इन दोनों का सम्मिलित रूप आवश्यक है।
... ज्ञान के अभाव में आचरण नेत्रहीन है और आचरण के अभाव में ज्ञान पंगु।
एक विद्यार्थी को अपने पाठ्यक्रम का ज्ञान है, किस तरह पढ़ना चाहिए, यह भी वह जानता है, कालेज का पता भी उसे मालूम है किन्तु वह कालिज तक जाए ही नहीं, अध्ययन ही न करे तो क्या वह परीक्षा में उत्तीर्ण होकर डिग्री ले सकता है ? कभी नहीं।
वही स्थिति नीतिविज्ञान के बारे में है। सिर्फ आदर्शों का ज्ञान मानव के लिए किसी काम का नहीं है । लक्ष्य प्राप्ति के लिए आचरण भी उतना ही जरूरी है।
पश्चिमी नीतिविज्ञानशास्त्री जो नीतिशास्त्र को एक नियामक विज्ञान मानकर उसके विवेचन में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं, यह उनका अपना दृष्टिकोण है ।
किन्तु भारतीय चिन्तन इसमें सुधार करता है । वह आदर्श के ज्ञान के साथ-साथ आचरण पर भी उतना ही जोर देता है।
चिन्तन शैली के इसी मौलिक भेद के कारण पश्चिम में नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों पर अगणित पुस्तकें लिखी गईं। इसके कला अथवा विज्ञान होने पर खूब चर्चा हुई, इसकी प्रकृति के विषय में प्रभूत चिंतन हुआ; किंतु भारत में ऐसा चिन्तन नहीं हुआ, यहाँ के मनीषी इन विवादों में नहीं उलझे, यहाँ तो नीति के सिद्धान्त अथवा आदर्शों के विवेचन के साथ-साथ उसे प्राप्त करने के साधन भी बताये गये ।
१ आचारांगनियुक्ति, गाथा १६
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