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नैतिक प्रत्यय | १२७
संगत नहीं है, क्योंकि नैतिक प्रत्यय इस जीवन से ही सम्बन्धित होते हैं। दूसरी बात यह है कि धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से मोक्ष एक आदर्श दशा है जबकि नीतिशास्त्र आदर्श को स्वोकारते हुए भी व्यवहार को-प्रत्यक्ष को अधिक महत्व देता है।
अतः वह मोक्ष पुरुषार्थ का इतना आदर्शात्मक एवं दूरगामी अर्थ स्वीकार करने की अपेक्षा नैतिक धरातल पर ही इसका अर्थ स्वीकारना अधिक संगत और युक्तियुक्त मानता है ।
इस अपेक्षा से वह मुक्ति अथवा मोक्ष का लक्षण-कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव-कषायों से मुक्ति ही मोक्ष है, इतना ही स्वीकार करना चाहता है । कषायों से मुक्ति का अभिप्राय यहाँ क्रोध, मान, कपट, लोभ की इतनी उपशांति लगाया जाना चाहिए, जिससे व्यक्ति न स्वयं दुःखी हो और न सम्पर्क में आने वालों को पीड़ित करे ।
आचार्य शंकर ने जब यह कहा वासनाप्रक्षयो मोक्षः वासनाओं का क्षय होना ही मोक्ष है, तो उनका भी यही अभिप्राय माना जाना चाहिए कि मानव की वासनाएँ स्वयं उसके हृदय को उद्वेलित न करें और वह अन्य लोगों को भी उद्विग्न न करें, इतनी क्षीण अथवा शांत हो जायें; क्योंकि वे आगे कहते हैं
... देह का छूट जाना मोक्ष नहीं है, और न दण्ड-कमण्डल ही; हृदय की अविद्यारूपी ग्रन्थि का छूट जाना ही मोक्ष है।
अतः नीतिशास्त्र के अनुसार मोक्ष इसी जीवन में प्राप्तव्य नैतिक प्रत्यय है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में से अर्थ और काम तो मानव के सभी क्रियाकलापों के प्रेरणा-बिन्दु हैं, धर्म भी मानव को शुभ कार्यों/नैतिक क्रिया कलापों की प्रेरणा का प्रमुख हेतु है। मोक्ष धर्मशास्त्रीय दृष्टि से एक ऐसी आदर्श स्थिति है, जिसे प्रत्येक अध्यात्मवादी मानव प्राप्त करना चाहता है।
१ विवेक चड़ामणि, ३१८ २. देहस्य मोक्षो न मोक्षो, न दण्डस्य कमण्डलोः ।
अविद्या-हृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः॥ -विवेक चूडामणि ५५६
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